________________
28
समीक्षा
प्रकृति जगत् के वातावरण में क्षण क्षण में परिवर्तन होता रहता है। वह परिवर्तन अनेक मुखी होता है। उसके परिणाम स्वरूप जगत में विद्यमान पदार्थ भी बदलते जाते हैं। पुद्गलात्मक परिणमन भी विविधतामय होता जाता है। उस परिवर्तन के अनुरूप जैविक जीव की स्थितियाँ भी विविध रूप में प्रकट होती हैं। वहाँ परिवर्तन की धारा उत्कर्ष और अपकर्ष को लेकर द्विमुखी होती है। उसे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी द्वारा व्यक्त किया गया है। काल चक्र के दोनों रूपों के साथ क्रमश: यही भाव जुडा रहता है। ___'उत्सर्पिणी का प्रथम एवं अवसर्पिणी का अंतिम काल अत्यधिक विकार युक्त होता है।' सभी पदार्थ दुर्गति और दुरवस्था लिये रहते हैं। वैसी घोर पापमय स्थितियों पर सोचते हुए व्यक्ति के अंत:करण में वह भाव उत्पन्न होता कि अपनी अनुकूल जिस स्थिति में वह है वैसा नहीं है, उसको उसका लाभ लेते हुए धर्माचरण में लीन रहना चाहिए।
कालचक्र के स्वरूप के परिशीलन से जगत की विचित्रता और विषमता का बोध होता है और इस भ्रमणशील काल चक्र को पार कर परमसुख को प्राप्त करना उससे मानव आत्मावलोकन में उत्प्रेरित होता है। तीर्थंकर एवं धर्मतीर्थ वर्तमान अपसर्पिणी के तीसरे चौथे आरे में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं जो इस प्रकार हैं
१) श्री. ऋषभदेवजी २) श्री. अजितनाथजी ३) श्री. संभवनाथजी ४) श्री. अभिनंदनजी ५) श्री. सुमतिनाथजी ६) श्री. पद्मप्रभुजी ७) श्री. सुपार्श्वनाथजी ८) श्री. चंद्रप्रभुजी ९) श्री. सुविधिनाथजी १०) श्री. शीतलनाथजी ११) श्री. श्रेयांसनाथजी १२) श्री. वासुपूज्यजी १३) श्री. विमलनाथजी १४) श्री. अनंतनाथजी १५) श्री. धर्मनाथजी १६) श्री. शांतिनाथजी १७) श्री. कुंथुनाथजी १८) श्री. अरहनाथजी १९) श्री. मल्लिनाथजी २०) श्री. मुनिसुव्रतनाथजी २१) श्री. नमिनाथजी २२) श्री. अरिष्ठनेमिजी २३) श्री. पार्श्वनाथजी २४) श्री. महावीर स्वामीजी ।