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________________ 27 स्थापना करते हैं। उन्होंने मुनियों के लिए पांच महाव्रत और गृहस्थों के लिए बारह व्रतों का उपदेश दिया और वे आयु पूर्ण करके मोक्षगामी हुए हैं। इस आरे को सुषम-दुषम कहा जाता है। चतुर्थ आरे में दु:ख का भाग अधिक होता है, तथा सुख का भाग कम होता है, इसलिए इसे दुषम-सुषम कहा जाता है। इस आरे में भगवान महावीर स्वामी मोक्ष को प्राप्त हुए हैं। पंचम आरे को दुषम कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि- वह सर्वथा दु:खमय होता है। उसमें सुख नहीं होता। इस आरे में वर्णादि पर्यायों में अनंतगुणी हीनता आ जाती है क्रमश: -हास होता है। छठे आरे में दु:ख की अत्याधिकता हो जाती है, तथा वह आरा घोर दुःखमय होता है, इसलिए इसे दुषम-दुषम कहा गया है। अवसर्पिणी काल का प्रथम आरा अत्यंत सुखमय और अंतिम आरा अत्यंत दुःखमय होता है। उसकी पराकाष्टा क्रमशः घटती घटती दुःख की पराकाष्टा में परिवर्तित होती है। उत्सर्पिणी काल के छह आरे अवसर्पिणी काल के पश्चात् उत्सर्पिणी काल आता है। उसका गति क्रम अवसर्पिणी से सर्वथा विपरीत या उल्टा है। अवसर्पिणी का अन्तिम आरा दुषम-दुषम के समान है उत्सर्पिणी का प्रथम आरे के समान होता है। जिस प्रकार अवसर्पिणी में क्रमशः सुख घटता जाता है और दुःख बढता जाता है। उसी प्रकार उत्सर्पिणी में दुःख घटता जाता है और सुख बढता जाता है। जिस प्रकार अवसर्पिणी का अंतिम भाग नितांत दुखमय होता है उसी प्रकार उत्सर्पिणी का प्रथम आरा घोर दुःख पूर्ण होता है, इसलिए इसका नाम दुषम-दुषम है। अवसर्पिणी के पंचम आरे के समान उत्सर्पिणी का द्वितीय आरा होता है। दोनों दुःखमय हैं। उत्सर्पिणी के दुषम आरे में भरतक्षेत्र में पांच प्रकार की वृष्टि होती है। वनस्पतियों में पाँच रसों की उत्पत्ति होती है। उत्सर्पिणी का तीसरा आरा दुःख की बहुलता और उसकी अपेक्षा सुख की अल्पता का काल है। वह दुषम-सुषम नामक काल है। वह अपसर्पिणी काल के चौथे आरे के समान इसमें प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। उत्सर्पिणी का चौथा आरा सुषम-दुषम काल है। उसमें सुख अधिक है, और दुःख कम है। इसमें चौबीसवे तीर्थंकर मोक्ष में जाते हैं। वर्णादि शुभ पर्यायों में वृद्धि होती है। उसी प्रकार अवसर्पिणी का तीसरा काल है। उत्सर्पिणी का पांचवा सुषम काल है; जो सुखमय है। उसी प्रकार अवसर्पिणी का दूसरा काल सुखमय है। इसमें वर्णादि शुभ पर्यायों की वृद्धि होती है। उत्सर्पिणी का छट्ठा आरा सुषम-सुषम है। जो अत्यंत सुखमय है अवसर्पिणी के प्रथम आरा इसके सदृश है।३१
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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