SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 26 हुआ है। गणधर गौतम स्वामी के द्वारा जिज्ञासा किये जाने पर भगवान महावीर ने जो काल का वर्णन किया है वह पठनीय है। भरतक्षेत्र में काल दो प्रकार के हैं।२७ १)अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणी काल। अवसर्पिणी काल छह प्रकार का है- १) सुषम-सुषमकाल, २) सुषमकाल, ३) सुषम-दुषमकाल, ४) दुषम-सुषमकाल, ५) दुषमकाल, ६) दुषमदुषमकाल। उत्सर्पिणी काल के छह प्रकार हैं- १) दुषम-दुषमकाल, २) दुषमकाल, ३) दुषम-सुषमकाल, ४) सुषम-दुषमकाल, ५) सुषमकाल, ६) सुषमसुषमकाल।२८ जैनतत्त्व प्रकाश२९ और जैनागम स्तोक संग्रह३० में भी यही बात कही है। समीक्षा सर्पण शब्द का अर्थ रेंगना, सरकना या चलना है। काल के दोनों भेदों के साथ यह शब्द जुडा हुआ है। काल सर्प की तरह रेंगता हुआ शनैः शनैः अपनी गति से चलता है। अवसर्पिणी शब्द में जो 'अव' उपसर्ग लगा है। वह अपकर्ष या -हास का द्योतक है। उत्सर्पिणी शब्द में 'उत्' उपसर्ग लगा है, वह उत्कर्ष या वृद्धि का सूचक है। अवसर्पिणी काल सभी दृष्टियों से क्रमश: -हासोन्मुख होता है उसके जो छह भेद बतलाये गये हैं। वे चक्र या पहिये के आरक की तरह हैं, इसलिए इन्हें आरक या आरा कहा जाता है। अवसर्पिणी काल के छह आरे अवसर्पिणी काल का पहला आरा सुषम-सुषम कहा गया है। सुषमा शब्द सुंदरता, समृद्धि या सुकुमारता का द्योतक है। प्रथम आरे में सुषम शब्द दो बार आया है। इसका तात्पर्य यह है कि- इस काल में जीवों की शक्ति, अवगाहना, आयु तथा समस्त पदार्थ अत्यंत उत्कर्षमय होते हैं। शास्त्रों में इस आरे का वर्णन विस्तार से किया गया है। प्रथम आरे की अपेक्षाकृत दूसरे आरे में हीनता या न्यूनता आ जाती है। इसलिए दूसरे आरे का नाम केवल सुषम ही रह जाता है। इस आरे में अत्यंतता या अधिकता नहीं रहती। यहाँ अपकर्ष या न्हास का क्रम उत्तरोत्तर बढता जाता है। तीसरे आरे में सुखमयता, दूसरे आरे की अपेक्षा कम हो जाती है, अर्थात् उसमें सुख के साथ दुःख भी जुड जाता है। इसमें सुख अधिक होता है और दुःख कम होता है। काल के प्रभाव से धरती के रस-कस कम हो जाते हैं। इस आरे में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म होता है। उन्होंने पुरुषों को (७२) बहत्तर कलायें और स्त्रियों को (६४) चौषठ कलायें सिखाईं। वे स्वयं प्रव्रजित होकर साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्मसंघ की
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy