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________________ 25 देती है, जाति का कोई महत्त्व नहीं है। उनके तप की ऋद्धि अत्यंत प्रभावशालिनी है।२३ हरिकेशी मुनि के उदाहरण से यह स्पष्ट है कि नीच कहे जाने वाली जातियों में भी उच्चकोटि के ज्ञानी एवं तपस्वी महापुरुष हुए हैं। यहाँ व्रत, त्याग, शील, और आत्मोपासना, अहिंसा, करुणा, दया, सेवा और मैत्री भावना का महत्त्व है। भगवान महावीर के समय में देश में हिंसा का मानो ताण्डव नृत्य हो रहा था। कुछ लोग तो हिंसा को धर्म का साधन मानते थे। जैसे पहले संकेत दिया कि भगवान की क्रांति अहिंसक क्रान्ति थी। उन्होंने अहिंसा को सबसे बडा धर्म बतलाया। कहने के लिए तो अन्य धर्मों में भी 'अहिंसा परमो धर्म:'२४ कहा जाता है किन्तु उनके जीवन में अहिंसा का स्वीकार नहीं था। भगवान महावीर ने मन, वचन और कर्म के द्वारा अहिंसक भाव अपनाने की प्रेरणा दी। जैन धर्म की दृष्टि से सदाचार, सत्य, संतोष, इन्द्रिय दमन, आत्मनिग्रह, राग-द्वेष, लोभ आदि का नियंत्रण, इन गुणों का ही महत्त्व है। व्यक्ति विशेष का कोई महत्त्व नहीं है, चाहे वह लौकिक दृष्टि से कितना ही बडा वैभवशाली और सत्ताधीश क्यों न हो। वहाँ तो वे ही पूजनीय हैं, उन्हीं का सर्वाधिक महत्त्व है, जिनमें ये गुण हैं, वे ही आदर और सम्मान के पात्र होते हैं। जैनधर्म का अन्तिम लक्ष्यः शाश्वत शांति ___ जैनधर्म के अनुसार धार्मिक कार्य-कलापों का अंतिम या मूल उद्देश्य शाश्वत शांति और मोक्ष को प्राप्त करना है। अनंतज्ञान और अनंतदर्शन आत्मा के स्वभाविक गुण हैं। संसार के प्राणियों में मनुष्य सर्वाधिक विकसित प्राणि है। आत्मा की विशुद्ध अवस्था का अनुभव करने की उसमें शक्ति है। तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट धार्मिक एवं नैतिक संस्कृति आत्मा को पूर्णत्व की ओर ले जाने के लिए एक व्यावहारिक मार्ग की संरचना करती है। ___ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारतीय धर्मों में मोक्ष प्राप्त करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। उनमें जैन धर्म के सिद्धात में विशेष अंतर यह है कि जो त्याग और साधना की गहराई इसमें है, वह अन्यत्र नहीं मिलती।२५ जैन धर्म पुरुषार्थसिद्धि से सर्वार्थसिद्धि की सफल तीर्थ यात्रा है। वह सिद्ध पुरुषों अर्थात् शूरवीरों का धर्म है।२६ कालचक्र परंपरा से जैन धर्म को शाश्वत माना गया है। अत: एव समय-समय पर जैनधर्म का किसी क्षेत्र विशेष में लोप हो जाने पर भी वह पूर्णतया नष्ट नहीं होता। वह अनादिकाल से चला आ रहा है और चलता रहेगा। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र में कालचक्र का विस्तृत विवेचन
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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