________________
372
गोत्रकर्म का प्रभाव आदि विषयों का निरूपण है। जिस कर्म उदय से जीव को प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित कुल में जन्म होता है वह गोत्रकर्म है अथवा उच्च-नीच अवस्था प्राप्त होती है उसे गोत्रकर्म कहते हैं।
गोत्रकर्म का स्वभाव कुंभकार के समान है। जिस प्रकार कुंभकार छोटे बडे अनेक कुंभ बनाता है, उसी प्रकार यह नामकर्म उच्चनीच गोत्र प्राप्त कराता है। गोत्रकर्म दो प्रकार का है- उच्चगोत्र और नीच।
उच्चगोत्र और नीचगोत्र आठ प्रकारसे बाँधा जाता है। और आठ प्रकार से भोगा जाता है। अंतरायकर्म . अंतराय कर्म का निरूपण, अंतराय कर्म की पाँच प्रकतियाँ, अंतराय कर्मबंध के पाँच कारण, अंतराय कर्म पाँच प्रकार से भोगे, अंतराय कर्म का प्रभाव। __दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न पैदा करने वाला कर्म 'अंतराय कर्म' है। अंतराय कर्म का स्वभाव राजा के खजानची के समान है। जिस प्रकार राजा की इच्छा के बिना राजा का खजानची दान नहीं कर सकता, अंतरायकर्म दानादि देने नहीं देता।
अंतराय कर्म पाँच प्रकारे बाँधा जाता है। और पाँच प्रकार से भोगा जाता है।
इस प्रकरण में कर्मबंध की परिवर्तनीय अवस्था के दस कारण, कर्मबंध का मूल कारण राग-द्वेष, राग और द्वेष में नुकसान कारक कौन? प्रशस्तराग, अप्रशस्तराग और उनके प्रकार आदि विषयों का विश्लेषण किया गया है। • इस प्रकरण में आठ कर्मों का नवनीत रूप संक्षिप्त में वर्णन किया गया है। विवेचन में समीक्षात्मक दृष्टि रखी गई है, इसलिए जहाँ जहाँ अपेक्षित लगा है वहाँ वहाँ जैनेतर विचारधाराओं को तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है।
सिद्धत्व की गौरवमय लंबी यात्रा कर्मक्षय करने पर पूर्ण होती है। आंतरिक पवित्रता, उज्ज्वलता और विशुद्धता आदि कर्मक्षय पर आधारित है। इस प्रकरण में कर्म का विराट स्वरूप के संबंध में किया गया निरूपण सिद्धावस्था या मोक्षमार्ग के साथ जुड़ा हुआ है। प्राय: इन सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों को सविस्तार रूप में प्रकट किया गया है, जिसका ज्ञान मुमुक्षुओं के लिए निश्चय ही लाभप्रद होगा। पंचमप्रकरण - कर्मों की प्रक्रिया . प्रस्तुत शोधग्रंथ के पंचम प्रकरण में पुद्गल से जीव परतंत्र बनता है, कर्म विजेता तीर्थंकर, आत्मा शरीर के संबंध से पुन: पुन: कर्मबंध, सुख दुःख जीव के कर्माधीन, प्रत्येक