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________________ 360 ठीक उसी प्रकार अशुभ कर्मबंध मानव को नरक में ले जाते हैं और शुभ कर्म मानव को उच्चगति प्राप्त कराते हैं। कर्म की महत्ता सभी क्षेत्रों में __ आज विश्व में चारों ओर कर्म, कर्म और कर्म की आवाजें आ रही हैं। क्या पारिवारिक, क्या सामाजिक, क्या आर्थिक और क्या राजनैतिक इसी प्रकार नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में कर्म को प्रधानता दी जा रही है। भारतीय धर्मों और दर्शनों ने ही नहीं, पाश्चात्य धर्मों और दर्शनों ने भी एक या दूसरे प्रकार से कर्म की महत्ता को स्वीकार किया है। पश्चिमी देशों में Good deed और Bad deed के नाम से कर्म शब्द प्रचलित है। जैन दर्शन ने ही नहीं भारत के मीमांसा, वेदांत, योग, सांख्य, बौद्ध और गीता आदि दर्शनों ने भी कर्म को एक या दूसरे प्रकार से माना है। चार्वाक दर्शन ने आत्मा का अस्तित्व न मानकर भी अच्छे और बुरे कार्य के रूप में कर्म को माना है। इस प्रकार झोपडी से लेकर महलों तक कर्म शब्द गूंज रहा है। जीवन के कण-कण और क्षण-क्षण में कर्म रमा हुआ है। कोई भी जीवित प्राणी कर्म किये बिना रह नहीं सकता। भारत के प्रसिद्ध संत तुलसीदास जी ने कहा है कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा। यह विश्व कर्म प्रधान है, जो प्राणी जैसा कर्म करता है वैसा ही फल प्राप्त करता है। सिद्धांत चाहे कितना भी ऊँचा हो किंतु व्यावहारिक धरातल पर या दैनिक जीवन में उपयोगी सिद्ध न होता हो तो वह केवल हवाई कल्पना ही है। वही सिद्धांत जीवित है जो व्यावहारिक जीवन में खरा उतरता हो। इस दृष्टि से कर्म सिद्धांत भी मात्र कोरे आदर्श की आकाशी उड्डान नहीं है, अपितु आदर्श के साथ-साथ जीवन के दैनिक व्यवहार में भी वह कदम-कदम पर उपयोगी है। यदि कर्मसिद्धांत को जीवन की हर छोटी बड़ी घटनाओं के साथ जोड दिया जाये तो मनुष्य अशुभ कर्म करने से बच सकता है। इससे उसके व्यावहारिक जीवन में भी कहीं गतिरोध नहीं आता। इस प्रकार शुभ-अशुभ परिणामों को देखकर व्यक्तियों के शुभ-अशुभ व्यवहार की व्याख्या कर्म के द्वारा की जाती है। इन्हीं शुभाशुभ व्यवहार की व्याख्या से कर्म सिद्धांत ने दार्शनिक ढंग से प्रस्तुत किया है। वह कहता है, 'अच्छे कर्मों का फल शुभ होता है और बुरे कर्मों का फल अशुभ होता है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि कर्म सिद्धांत मानव तथा मानवेतर समस्त प्राणियों के दैनिक व्यवहारों की व्याख्या कर्म के द्वारा प्रस्तुत करता है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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