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इतना ही नहीं जो लोग कर्म सिद्धांत पर आक्षेप करते हैं कि कर्मवाद इस जन्म में प्राप्त सुख-दुःखरूप फल की संगति पूर्वजन्म में किये गये कर्मों के साथ बिठाता है, उनके इस आक्षेप का भी खंडन हो जाता है। चाहे इस जन्म में किये गये कर्मों का फल हो या पूर्वजन्मकृत कर्मों का फल हो किंतु कहलाता वह पूर्वकृत कर्म ही है । पूर्वकृत में इस जन्म के और पूर्वजन्म के कर्म भी आ जाते हैं, इसलिए यह नि:संदेह कहा जा सकता है कर्म सिद्धांत आदर्श या सिद्धांत की व्याख्या नहीं करता अपितु कर्म के द्वारा व्यवहारिक जीवन की व्याख्या प्रस्तुत करता है । कर्म सिद्धांत का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है- 'अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है।' यह सूत्र जीवन को नैतिक और व्यवहारिक दृष्टि से उन्नत बनाने का आधार बनता है । जब मनुष्य की यह धारणा पक्की बन जाती है कि बुरे कर्मों का फल बुरा मिलता है, तब उसे बुराई से बचने की प्रेरणा मिलती है।
कर्म सिद्धांत के अनुसार आचरण करने से मनुष्य के जीवन में प्रमाद की मात्रा कम हो जाती है। कषाय मंद से मंदतर हो जाते हैं और भोग के प्रति रुचि भी कर्म हो जाती है। स्पष्ट है कि कर्मसिद्धांत आस्रव और बंध से बचने तथा संवर - निर्जरा के अनुसार चलने का संदेश देता है। कर्मसिद्धांत के अनुसार व्यवहारिक जीवन में हर कदम पर सावधानी रखकर चले तो मनुष्य बहुत कुछ अंशों में पाप कर्मों से बच सकता है।
प्रथमप्रकरण - कर्मसिद्धांत के मूल ग्रंथ आगम वाङ्मय
इस प्रथम प्रकरण में जैन दर्शन और साहित्य पर प्रकाश डाला गया है। ऐतिहासि दृष्टि से जैनधर्म काल की सीमा में आबद्ध नहीं है, वह अनादि है । विभिन्न युगों में तीर्थंकरों द्वारा कर्मसिद्धांत के विषय में विश्लेषण होता रहा है। संयम, विरति, साधना, तपश्चरण, शील, सद्भावना आदि आचार मूलक सिद्धांत कर्मवाद और अनेकांतवाद दर्शन पर आधारित . है । वर्तमान अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत हमें आगमों के रूप में प्राप्त है।
कर्मसिद्धांत जैन धर्म और दर्शन पर आधारित है। जिस पर साधना के बहुमुखी आयाम आश्रित हैं। अष्टकर्मों को नष्ट करना साधना का चरम लक्ष्य है। आगमों और पश्चात्वर्ती जैन साहित्य में विभिन्न प्रसंगों में आठों ही कर्मों पर विविध दृष्टियों से व्याख्या की गई है । आगम आदि ग्रंथ जैनधर्म और दर्शन के मूल स्रोत हैं । जैन परंपरा में अपने सिद्धांतों के अनुरूप साहित्य का बहुमुखी विकास हुआ है । आगमों पर तथा अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रंथों पर व्याख्यायें लिखी और स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की, साहित्य का बहुमुखी विकास हुआ। साहित्य सर्जन का यह क्रम निरंतर गतिशील रहा। प्राकृत और संस्कृत में विपुल साहित्य रचा गया। लोक भाषाओं में भी रचनाओं का वह क्रम विकासशील रहा।
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