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________________ कहा जाता है। यहाँ तीर्थ शब्द का प्रयोग बाह्य तीर्थ स्थानों के लिए नहीं है। श्रमण, श्रमणी, श्रमणोपासक तथा श्रमणोपासिका रूप चतुर्विध धर्मसंघ यहाँ तीर्थ शब्द से अभिहित है। वे सर्वज्ञ प्रभु तीर्थ की स्थापना करते हैं, इसलिए तीर्थंकर कहलाते हैं। 'तीर्थतेऽनेनेति तीर्थम्' । जिसके द्वारा तीर्थ किया जाता है या पार किया जाता है वह तीर्थ है।१५ धर्म तीर्थ संसार सागर को पार करने का, जन्म मरण से छूटने का साधन या माध्यम है। इतिहास एवं परंपरा ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो जैन धर्म पहले इस नाम से प्रचलित नहीं था। तो जैनधर्म के लिए 'निग्रंथ' शब्द का उपयोग किया जाता था। जैन आगमों में 'निगंथ निग्गंथ' शब्द का संस्कृत रूप निर्ग्रन्थ दिया गया है। निग्रंथ याने (धन, धान्य इत्यादि) बाह्य ग्रंथी और मिथ्यात्व, अविरति, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि (अंतरंग ग्रंथी) अर्थात् बाह्यान्तर परिग्रह से रहित संयमी साधु को निग्रंथ कहा जाता था। उन्होंने कहे हुए सिद्धेतों को 'निग्रंथ प्रवचन' कहा जाता है। आवश्यक सूत्र में निग्गंथं पावयणं' शब्द आया है।१६ पावयणं शब्द का अर्थ प्रवचन . होता है। जिसमें जीवाजीव इत्यादि पदार्थों का और ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि रत्नत्रय साधना का यथार्थ रूप में निरूपण किया जाता है। शास्त्रानुसार बिंदुसार पूर्व तक का ज्ञान निग्रंथ प्रवचन में समाविष्ट हुआ है।१७ जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकर माने गये हैं, जो विभिन्न युगों में अनंत बार होते रहे हैं, एवं होते हैं। वर्तमान युग के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर थे। तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट जैन धर्म आश्रित है। उन्होंने धर्म परिषदों में अर्धमागधी याने प्राकृत में जो उपदेश दिया है, वह उनके प्रमुख शिष्यों द्वारा शब्द रूप में संकलित सुग्रंथित किया है।१८ वही उपदेश आगमों के रूप में हमें प्राप्त है। उसे ही द्वादशांगी वाणी कहते हैं। उसका संकलन, रचना गणधरों ने की है।१९ वे अंगसूत्र के रूप में हैं। 'अंगसूत्र' को समवायांग सूत्र में गणिपिटक कहा गया है। जिसमें गुणों का समुदाय होता है ऐसे आचार्यों को 'गणि' कहा जाता है और पिटक याने पेटी, मंजुषा, पिटारा आदि अर्थ होते हैं, इस प्रकार श्रुत रत्नों की पेटी को गणिपिटक कहते हैं।२० ये अंग, उपांग, छेद, मूल या आवश्यक के रूप में मुख्यत: बत्तीस आगम हैं।२१ श्वेतांबर जैन परंपरा के सभी आम्नायों द्वारा वे स्वीकृत हैं। उनमें साधुओं के व्रत, आचार, नियम, दिनचर्या, तपस्या, कर्मबंध के कारण इत्यादि का वर्णन है। - इन आगमों में तत्कालीन समाज, शासन, राज्य व्यवस्था, कृषि, व्यापार कला, शिक्षण आदि का भी वर्णन है। जिससे देश की तत्कालीन स्थिति का यथार्थ परिचय प्राप्त होता है। वास्तव में ये आगम भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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