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________________ 320 बंध का स्वरूप आचार्य शीलांक ने सूत्रकृतांग की टीका में कहा है कि, आरंभ और कषाय आत्मा के परिग्रह हैं। मिथ्यात्व और अज्ञान आत्मा के बंधन हैं। जब तक इनका अस्तित्व रहेगा, तब तक आत्मा बंधन से मुक्त नहीं होगी। पूर्वबद्ध कर्म ठीक समय पर फल देकर अवश्य ही अलग होंगे, परंतु उससे नए कर्म का बंध होता रहेगा और बंध की परंपरा जारी रहेगी। इसलिए बंध का स्वरूप और उसके कारणों का ज्ञान कर लेना आवश्यक है। उससे ही आत्मा बंधन का त्याग कर मुक्त हो सकेगी। वस्तुत: बंध भी आत्मा की पर्याय है और मोक्ष भी आत्मा की पर्याय है, परंतु दोनों पर्यायों में बहुत बड़ा अंतर है। मोक्ष यह आत्मा की विशुद्ध पर्याय है तो बंध अशुद्ध पर्याय है। जब तक मोह और अज्ञान रहेगा, राग-द्वेष और मिथ्यात्व रहेंगे, तब तक बंध की पर्याय या अशुद्ध पर्याय रहेगी। - जब स्व-स्वरूप में स्थित होना ही बंधन से मुक्त होना है और परभाव में भौतिक वस्तुओं में या पर पदार्थों में रमना यही बंधन है।१८९ जब तक बंधन का स्वरूप समझा नहीं जायेगा, तब तक मोक्ष का स्वरूप भी समझा नहीं जाएगा, बंधन का स्वरूप समझने के बाद ही उसे नष्ट करने का प्रयत्न किया जा सकेगा। १९० बंध यह आस्रव और निर्जरा के बीच की स्थिति है। आस्रव के द्वारा कर्म पुद्गल आत्मप्रदेशों में आते हैं। निर्जरा द्वारा कर्म पुद्गल आत्मप्रदेशों से बाहर निकलते हैं। कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेश में आना अर्थात् आस्रव और उनका अलग होना अर्थात् निर्जरा तथा उन दोनों के बीच की स्थिति (अवस्था) को बंध कहते हैं।१९१ आगमों में बंध के कारण याने बंध हेतु दो प्रकार के बताये गये हैं- राग और द्वेष। यह कर्म के बीज हैं। जो कोई पाप कर्म हैं वे राग और द्वेष से ही होते हैं। १९२ टीकाकार ने राग को माया और लोभ कहा है और द्वेष को क्रोध और मान कहा है। आगम में यह भी कहा है कि जीव इन चार कषायों के द्वारा वर्तमान में आठ कर्मों को बाँधता है, भूतकाल में उसने आठ कर्म बाँधे हैं और भविष्यकाल में वह आठ कर्म बाँधेगा।१९३ । एक बार गौतमस्वामी ने भगवान महावीर स्वामी से पूछा - ‘जीव द्वारा कर्म कैसे बाँधा जाता है?' भगवान ने उत्तर दिया- 'गौतम! जीव दो स्थानों से कर्मबंध करता है, राग से और द्वेष से ।१९४ दूसरा मत ऐसा है कि योग प्रकृतिबंध का और प्रदेशबंध का हेतु है और कषाय स्थितिबंध और अनुभागबंध का हेतु है। इस प्रकार योग और कषाय ये दो कर्मबंध के हेतु हैं। १९५
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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