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________________ 319 . . वास्तव में तप अध्यात्म साधना का प्राण है। भारतीय धर्मों में और विशेष रूप से जैन धर्म में तप के विविध भेदों पर संपूर्ण विचार, चिंतन और मनन किया गया है। जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति तपोमय होनी चाहिए। ऐसी जैनधर्म की जीवनदृष्टि है। तप जीवन की ऊर्जा है। सृष्टि का मूल चक्र है। तप ही जीवन है। तप दमन नहीं शमन है। निग्रह नहीं अभिग्रह है। केवल भोजन निरोध नहीं वासना निरोध भी है। तप जीवन को सौम्य, स्वच्छ, सात्विक और सर्वांगपूर्ण बनाने की दिव्य साधना है। यह एक ऐसी साधना है। जिससे आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त होती है, और अंत में साधक जन्म, जरा एवं मृत्यु के चक्र से विमुक्त होकर परमात्मा पद तक पहुँचता है। तप जल के बिना होनेवाला अंतरंग स्नान है। यह जीवन के विकारों का संपूर्ण मल धोकर स्वच्छता लाता है। इस प्रकार जैनधर्म के तप के महत्त्व को समझ लेने पर स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। बंध - दूध में जैसे जल, धातु में जैसे मृतिका, पुष्प में जैसे सुगंध, तिल में जैसे तेल, लौहे के गोले में जैसे अग्नी, उसी प्रकार आत्मप्रदेशों में कर्मपुद्गल का समावेश होता है। यही 'बंध' है। दो पदार्थों के विशिष्ट संबंध को बंध कहते हैं। जीव कषाययुक्त होकर कर्म योग्य ऐसे पुद्गल ग्रहण करता है यही बंध है, इसका अर्थ यह है कि कर्मयोग्य पुद्गलों का और जीव का अग्नि और लोहपिण्ड के समान जो संबंध है, वही बंध है।१८३ तत्त्वार्थसार में भी बंध के विषय में यही कहा है।१८४ जब तक आस्रवों का द्वार खुला रहता है, तब तक बंध होता ही रहेगा। जहाँ जहाँ आस्रव है, वहाँ-वहाँ बंध है ही। आगम शास्त्र में अन्य पदार्थों के समान बंध को भी सत्, तत्त्व, तथ्य आदि संज्ञाओं से संबोधित किया गया है। कहा है कि ऐसा मत समझिए कि बंध और मोक्ष नहीं है, परंतु ऐसा समझिए कि बंध और मोक्ष है। १८५ बंध की व्याख्याएँ जिससे कर्म बाँधा जाता है, उसे बंध कहते हैं। जो बँधता है या जिसके द्वारा बाँधा जाता है अथवा जो बंधनरूप है, वह बंध है। इष्ट स्थान अर्थात् मुक्ति पाने में जो बाधक कारण है उसे बंध कहते हैं। कर्म-प्रदेशों का आत्म प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाही होना बंध है। आत्म द्रव्य के साथ संयोग और समवाय संबंध होता है, उसे ही बंध कहते हैं।१८६ वस्तुत: जीव और कर्म के मिश्रण को ही बंध कहते हैं, जीव अपनी प्रवृत्तियों से कर्मयोग्य पुद्गल को ग्रहण करता है। ग्रहण किये हुए कर्म पुद्गलों का जीव-प्रदेशों के साथ संयोग 'बंध' है। १८७ नवपदार्थ में भी यही बात कही है।१८८
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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