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इस प्रकार जैन धर्म में ज्ञान और क्रिया का समान महत्त्व है। ज्ञान के बिना क्रिया अंध है । और क्रिया के बिना ज्ञान पंगु है। इस प्रकार बाह्य और अभ्यंतर इन दोनों तपों के समन्वय से ही मोक्ष प्राप्ति होती है।
तप के भेद १८
. बाह्य तप (छः प्रकार)
१ ) अनशन,
२) अवमौदर्य,
३) वृत्तिपरिसंख्यान,
४) रसपरित्याग,
५) विविक्तशय्यासन,
६) कायक्लेश
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ध्यान के भेद
आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान ।
अभ्यंतर तप (छः प्रकार)
१) प्रायश्चित,
२) विनय,
३) वैयावृत्य,
४) स्वाध्याय,
५) व्युत्सर्ग,
६) ध्यान
तप का महत्त्व
'तप' चिंतामणी रत्न के समान चिंताओं को दूर करनेवाला है। दुःखरूपी अंधकार हटाने के लिए तप साक्षात् सूर्य के समान है। कर्मरूपी पर्वतों का नाश करने के लिए यह वज्र 'के समान उपयोगी है। इसमें समस्त प्रकार की अर्थसिद्धि समाविष्ट है ।
कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने का अमोघ साधन तप है। तप संसाररूपी समुद्र को पार कराता है, इसलिए शुद्ध भावना से तप आराधना करनी चाहिए। तप का तेज सूर्य से ज्यादा प्रखर है। मुक्ति और अध्यात्म के लिए सभी धर्मों में तप को महत्त्व दिया है।
जैन दर्शन का तप साधना का मार्ग हठयोग का मार्ग नहीं है। शरीर और मन पर किसी भी प्रकार का बलात्कार यहाँ दिखाई नहीं देता। मन की प्रसन्नता के उपरांत ही शरीर के द्वारा तप हो सकता है। जैन-धर्म की तप साधना में एक विशेषता यह भी है कि दुर्बल से दुर्बल साथ ही महान् से महान् शक्तिशाली पुरुष भी अपनी शक्ति के अनुसार इस तपोमार्ग की आराधना कर सकता है। छोटे से छोटा व्रत तप की कोटि में आता है। ऊनोदरी तो रोगी, भोगी, योगी कोई भी कर सकता है। इस प्रकार तप की सरल साधना भी इसमें बताई गई है। धीरे-धीरे शरीर और मन दृढ होने पर कठोर, दीर्घ उपवास, ध्यान और कायोत्सर्ग जैसी महान साधना द्वारा तप के उच्चतम शिखर पर पहुँच सकता है।