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________________ 317 चित्त को किसी भी विषय पर स्थिर करना अर्थात् एकाग्र करना 'ध्यान' है । १७८ आचार्य सिद्धसेन ने ध्यान की व्याख्या इस प्रकार की है- शुभ और पवित्र आलंबन (अवयव) पर मन को एकाग्र करना 'ध्यान' है । १७९ आचार्यों ने ध्यान के दो भेद किये हैं १) शुभ ध्यान, २) अशुभ ध्यान । जिस प्रकार गाय का दूध और 'थूहर ' ( एक विषैली वनस्पति) का दूध, दोनों दूध ही - हैं । और उन्हें दूध भी कहा जाता है, परंतु दोनों में बहुत अधिक भेद है, एक अमृत है तो दूसरा विष है। गाय का अमृतमय दूध मनुष्य को शक्ति प्रदान करता है, लेकिन थूहर विषमय दूध मनुष्य को मार डालता है इसी तरह दूसरा ध्यान- ध्यान में भी अंतर है। एक शुभ ध्यान है, तो दूसरा अशुभ ध्यान । शुभ ध्यान मोक्ष का हेतु है, तो अशुभ ध्यान नरक का हेतु है । चित्तरूपी नदी की दो धाराएँ हैं चितनाम् नदी ‘उभयतो वाहिनी वहति कल्याणाय पापाय च । अर्थात् चित्तरूपी नदी दोनों ओर से बहती है, कभी कल्याण के मार्ग से कभी पाप के मार्ग से। चित्त की इस उभयमुखी गति के कारण ध्यान के दो भेद किये गये हैं। शुभ- प्रशस्त ध्यान और अशुभ- अप्रशस्त ध्यान । शुभ ध्यान दो प्रकार का है और अशुभ ध्यान भी दो प्रकार का है। इस प्रकार ध्यान के कुल चार प्रकार हैं। आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान | १८० ठाणांगसूत्र में भी चार ध्यान का वर्णन आया है । १८१ बाह्य और आभ्यंतर तपों का समन्वय बाह्य और अभ्यंतर तप के भेदों और उपभेदों का विवेचन किया है। दोनों का समान स्थान है, कारण यह है कि आत्मशुद्धि के लिए जिस प्रकार उपवास स्वादवर्जन तथा कष्ट सहिष्णुता की जरूरत है, उसी प्रकार विनय, सेवा, स्वाध्याय और ध्यान की भी साधना आवश्यक है। बाह्य और अभ्यंतर तप का अस्तित्व एक दूसरे पर आधारित है, साथ ही एक दूसरे का पूरक है। बाह्य तप से अभ्यंतर तप पुष्ट बनता है, और अभ्यंतर तप से अनशन ऊणोदरी बाह्य तपों की साधना सहजता से होती है। तप रूपी रथ के बाह्य और अभ्यंतर ये पहिये हैं। इन दो पहियों पर ही रथ आधारित है । रथ कभी एक पहिये से नहीं चल उसके लिए दो पहिये चाहिए । बाह्य तप को यदि अभ्यंतर तप का सहयोग न मिले, सफल नहीं हो सकता । तो वह बाह्य तप क्रिया योग का प्रतीक है तो अभ्यंतर तप ज्ञान योग का । ज्ञान और क्रिया इन दोनों के समन्वय से ही जीवन सफल होता है। ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः ।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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