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तीसरा मत ऐसा है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये बंध हेतु हैं। बंध हेतुओं में प्रमाद का उल्लेख नहीं है। आगम में प्रमाद को भी बंध हेतु कहा है। बंध के दो भेद ः द्रव्यबंध और भावबंध १) द्रव्यबंध
कर्मपुद्गल का (कर्मसमूह) आत्मप्रदेशों के साथ जो संबंध बनता है, उसे 'द्रव्यबंध' कहते हैं। 'द्रव्यबंध' में आत्मा और कर्म पुद्गलों का संयोग होता है परंतु ये दो द्रव्य एक नहीं होते, उनकी स्वतंत्र सत्ता बनी रहती है। २) भावबंध
___ राग-द्वेष और मोह आदि विकारी भावों से कर्मों का बंध होता है। उसे भावबंध कहते हैं, अर्थात् जिस चैतन्य परिणामों से कर्मबाँधे जाते हैं वह भावबंध है। बेडियों का (बाह्य) बंधन द्रव्यबंध है और राग-द्वेष आदि विभावों का बंधन भावबंध है।१९६
जिस प्रकार तिल और तेल एक रूप होते हैं, उसी प्रकार जीव और कर्म एक रूप होते हैं। जिस प्रकार दूध में घी अनुस्यूत होता है, उसी प्रकार बंध में जीव और कर्म परस्पर अनुस्यूत होते हैं। जिस प्रकार धातु और अग्नि में तादात्म्य हो जाता है, उसी प्रकार बंध में जीव और कर्म में तादात्म्य हो जाता है, जीव और कर्म का पारस्परिक बंध प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है।१९७
'राग' भाव अनुकूल पदार्थ को अपनी तरफ खींचता है और द्वेषभाव प्रतिकूल पदार्थ को दूर रखता है, परंतु ये दोनों दशाएँ आत्मा की विभाव दशाएँ हैं, स्वभाव दशाएँ नहीं। स्वभाव दशा में पर-पदार्थ के प्रति स्नेहभाव या द्वेषभाव नहीं होता, राग और द्वेष आत्मा का शुद्ध स्वभाव नहीं है, इस प्रकार आत्मा में राग, द्वेष, मोह आदि विभाव दशा के सूचक हैं, यही बंध हेतु हैं। कर्म-पुद्गलों का आत्मा के साथ जो बंध होता है, वह द्रव्यबंध है। रागद्वेष आदि भावबंध के समाप्त होने पर द्रव्यबंध अपने आप नष्ट हो जाता है। ___ राग, द्वेष, मोह और कषाय आदि विकारी भावों से कर्म पुद्गलों का बंध होता है, उस विभाव दशा (विकृत भावदशा) को भावबंध कहते हैं। उस विभाव दशा के कारण कर्मपुद्गलों के आत्मा के साथ होने वाले संबंध को द्रव्य बंध कहते हैं।१९८ बंध के चार भेद
कर्म पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किये जाने पर कर्मरूप परिणमन अर्थात् रूपांतर को प्राप्त होता है। उसी समय उनमें चार स्थितियाँ निर्मित होती हैं। ये स्थितियाँ ही बंध के भेद हैं, जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि द्वारा खाये गये घास आदि का जब दूध में रूपांतर होता है, तब उसमें