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________________ 314 स्थिर हो सकता है, इसलिए पहले मन:शुद्धि कैसे की जाय, किन साधनों से और कौनसी प्रक्रियाओं से मन को निर्मल व निर्दोष बनाया जाय इसका विचार किया जाय। सुष्ठु आमर्यादया अघीयते इति स्वाध्याय। सत् शास्त्र का मर्यादापूर्वक वाचन करना तथा अच्छे ग्रंथों का ठीक प्रकार से अध्ययन करना ही स्वाध्याय है।१६२ स्वाध्याय के कारण मन इतना निर्मल और पारदर्शक बनता है कि शास्त्र का रहस्य उसमें प्रतिबिंबित होने लगता है, इसलिए स्वाध्याय एक अभूतपूर्व तप है। स्वाध्याय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए विद्वानों ने कहा है 'स्वस्य स्वस्मिन् अध्यायः अध्ययनं स्वाध्यायः । स्वयं अध्ययन करना अर्थात् आत्मचिंतन, मनन करना ही स्वाध्याय कहलाता है। स्वाध्याय का महत्त्व • जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए व्यायाम और भोजन की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार बुद्धि के विकास के लिए स्वाध्याय की आवश्यकता होती है। स्वाध्याय का जीवन में कितना महत्त्व है इसे मानव अनुभव से ही समझ सकता है। मनुष्य के विकास के लिए सत्संगति की बडी महिमा है, परंतु सत् शास्त्र का महत्त्व सत्संगति से भी अधिक है। सत्संगति हर बार नहीं मिल सकती। साधुजनों का परिचय और सहवास कभी मिलता है और कभी नहीं भी मिलता, लेकिन सत् शास्त्र हर समय मनुष्य के साथ रहता है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध विद्वान टपर ने कहा है- Books are our best friends- ग्रंथ हमारे सर्वश्रेष्ठ मित्र हैं।१६३ मनुष्य को सर्वप्रथम रोटी की आवश्यकता होती है। यह जीवन देती है, परंतु सत् शास्त्र की उससे भी अधिक आवश्यकता है, क्योंकि सत् शास्त्र जीवन की कला सिखाता है। इस संदर्भ में लोकमान्य तिलक ने कहा है- 'मैं नरक में भी उन सत् शास्त्रों का स्वागत करूँगा क्योंकि सत् शास्त्र एक अद्भुत शक्ति है। वह जहाँ होगी वहाँ अपने आप ही स्वर्ग बन जायेगा, इसलिए सत् शास्त्र का अध्ययन जीवन में अत्यंत आवश्यक है। यही कारण है कि सत् शास्त्र को 'तीसरा नेत्र' (शास्त्रम् तृतीय लोचनम्) कहा गया है। 'सर्वस्य लोचनं शास्त्रं' ऐसा भी उल्लेख मिलता है। भगवान महावीर ने अपने अंतिम उपदेश में कहा है, - 'स्वाध्याय के सातत्य से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है।१६४ अनेक जन्मों में संचित अनेक प्रकार के कर्म स्वाध्याय से क्षीण होते हैं । स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय होता है।१६५ स्वाध्याय एक बडी तपस्यश्चर्या है। इसलिए आचार्यों ने कहा है- १६६ न वि अत्थि न वि अ होहि सज्झाय-समं तवोकम्मं ।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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