________________
315
वैदिक ग्रंथों में भी जैनदर्शन के समान स्वाध्याय को तप माना गया है । तैत्तिरीय अरण्यक में कहा है स्वाध्याय स्वयं ही एक तप है।१६७ तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा -
स्वाध्याययान मा प्रमदः।१६८
अर्थात् स्वाध्याय में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। योगदर्शनकार पतञ्जलि ने कहा है- स्वाध्याय से इष्टदेव का साक्षात्कार होने लगता है।१६९ जैन आगम में स्वाध्याय के पाँच भेद बताये हैं- वाचना, पृच्छना, परिवर्तन, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा इनका विवेचन इस प्रकार किया गया है - वाचना - सद्ग्रंथों का वाचन करना और दूसरों को सिखाना। पृच्छना - मन में शंका उत्पन्न होने पर गुरुजनों से पूछना और ज्ञान को बढाना। पृच्छना
का अर्थ है जिज्ञासा और जिज्ञासा ज्ञान की कुंजी है। परिवर्तना - जो ज्ञान प्राप्त किया है उसकी आवृति करते रहना। इससे ज्ञान में स्थिरता
आती है और ज्ञान दृढ बनता है। धर्म अनुप्रेक्षा - तत्त्व के अर्थ और रहस्य पर विस्तारपूर्वक और गहराई में जाकर
चिंतन करना। धर्मकथा - धर्मोपदेश स्वयं सुनना और लोककल्याण की भावना से दूसरों को धर्म
का उपदेश देना।१७० इस प्रकार स्वाध्याय के पाँच भेद बताये हैं- इनके भी अनेक उपभेद जैनशास्त्रों (भगवतीसूत्र, ठाणांग) आदि में कहे गये हैं। १७१ साधक को अपना जीवन स्वाध्याय, तप में लगाकर शास्त्र की आराधना करनी चाहिए, तथा ज्ञान की उपासना कर, जीवन को उज्ज्वल बनाना चाहिए। ११) व्युत्सर्ग तप
अभ्यंतर तप का यह पाँचवा भेद है - व्युत्सर्ग। व्युत्सर्ग शब्द 'वि' और 'उत्सर्ग' इन दो पदों से मिलकर बना है। 'वि' का अर्थ है विशिष्ट और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग। विशिष्ट त्याग अर्थात् त्याग करने की विशिष्ट पद्धति ही व्युत्सर्ग है।
दिगंबर आचार्य अकलंक ने व्युत्सर्ग की व्याख्या इस प्रकार की है- निसंगता, अनासक्ति, निर्भयता और जीवन की लालसा का त्याग व्युत्सर्ग के आधार हैं।१७२ धर्म के लिए तथा आत्मसाधना के लिए स्वयं का उत्सर्ग करने की पद्धति ही व्युत्सर्ग है।१७३