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मधुरता के कारण अमृत जगत्प्रिय है, उसी प्रकार विनय के कारण मनुष्य भी संपूर्ण विश्व में प्रिय और आदरणीय होता है। जैनधर्म में विनय का उपदेश आत्म विकास के लिए, ज्ञान प्राप्ति के लिए और गुरुजनों की सेवा द्वारा कर्म निर्जरा के लिए दिया गया है। इस प्रकार विनय से आत्मा सरल शुद्ध और निर्मल बनती है। ९) वैयावृत्यतप
यह आभ्यंतर तप का तीसरा भेद है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहता है। उसे दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है। सुख-दु:ख के समय, संकट के समय तथा रोग-ग्रस्त होने पर उसे अन्य किसी सहयोग की अपेक्षा होती है।१५७ जीवों में परस्पर सहयोग और उपकार करने की वृत्ति होती है।१५८ भगवद्गीता में भी परस्पर सहयोग के संबंध में कहा है
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।१५९ परस्पर उपकार की वृत्ति छोटे बडे सभी जीवों में मिलती है। जैसे चींटी, मधुमक्खी, हाथी, हिरन, गाय आदि पशुपक्षी समूह में रहकर एक दूसरे को सहयोग देते हैं। एक बार गणधर गौतम ने पूछा- 'भगवन्! आपने सेवा वैयावृत्य का विशेष महत्त्व बताया है लेकिन वैयावृत्य के द्वारा आत्मा को फल की प्राप्ति कैसे होती है?' भगवन् ने उत्तर दिया- 'वैयावृत्य करने से आत्मा तीर्थंकर नाम गोत्रकर्म का उपार्जन करता है। यही वैयावृत्य का महान् फल है। उसके आचरण से आत्मा विश्व के सर्वोत्कृष्ट पद की प्राप्ति करता है।१६०
आचार्यों की सेवा करना, उपाध्यायों की सेवा करना, स्थविर मुनि, तपस्वियों की, रोगियों की, नवदीक्षित मुनियों की सेवा करना, कुल की सेवा करना, गण की सेवा करना, संघ की सेवा करना, सह-धार्मिक की सेवा करना। १६१ इन दस भेदों से साधु जीवन से संबंधित समस्त समूह आ गया। इन साधकों की सेवा करना, उनकी परिचर्या करना, और सुख शांति हो, ऐसा आचरण करना ही वैयावृत्य है। सेवा या वैयावृत्य में परमधर्म, सर्वोत्तम तप और मोक्ष मार्ग का उत्कृष्ट सोपान है। १०) स्वाध्याय तप
यह आभ्यंतर तप का चौथा भेद है। तप का उद्देश्य केवल शरीर को क्षीण करना ही नहीं है, अपितु तप का मूल उद्देश्य है अंतर्विकार को क्षीण करके मन को निर्मल एवं स्थिर बनाना और आत्मा का स्वरूप प्रकट करना। मानसिक शुद्धि के लिए तप के विविध स्वरूपों का वर्णन जैन शास्त्रों में किया गया है। उनमें स्वाध्याय और ध्यान ये दो तप प्रमुख हैं। स्वाध्याय मन को शुद्ध करने की प्रक्रिया है और ध्यान मन को स्थिर करने की। शुद्ध मन ही