SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 309 संक्षेप में ऊनोदरी तप का तात्पर्य आहार के परिमाण में कमी करना अथवा अपेक्षित आहार से कम आहार ग्रहण करना, कषायों को कम करना ऊनोदरी तप का भाव पक्ष है । १३४ ३) वृत्तिपरिसंख्यान (भिक्षाचर्या) विविध वस्तुओं की लालसा को कम करना या भोगाकांक्षा पर अंकुश लगाना वृत्तिपरिसंख्यान तप कहा है । वृत्ति का अर्थ भिक्षावृत्ति भी है । भिक्षावृत्ति के लिए विविध प्रकार की मर्यादाओं को स्वीकार करना वृत्ति परिसंख्यान तप है। जैसे दो या तीन घरों से ही भिक्षाग्रहण करूँगा अथवा एक या दो बार में पात्र में जो आहार आयेगा उसी से संतुष्ट रहूँगा । यही वृत्ति परिसंख्यान है । - जैन परंपरा में भिक्षाचर्या को गोचरी या मधुकरी भी कहा जाता है । जैसे गाय घास को ऊपर ऊपर से ग्रहण करके अपनी क्षुधा तृप्त कर लेती है और जैसे भँवरा थोड़ा-थोड़ा र ग्रहण करके क्षुधा शांत कर लेता है । उसी प्रकार मुनि भी गृहस्थों के घर से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करके अपनी क्षुधा को निवृत्त कर लेता है। वस्तुत: यह दृष्टिकोण न केवल जैन • परंपरा का है, अपितु बौद्ध तथा वैदिक दर्शन में भी भिक्षाग्रहण करने की विधि मानी गई है। भिक्षावृत्ति को विविध प्रकार से मर्यादित करना की वृत्ति संक्षेप तप कहलाता है। श्रमण को मधुकर की उपमा दी गई है। जिस प्रकार भ्रमर फूलों पर घूमते समय थोड़ा-थोड़ा मधु पीकर " संतुष्ट हो जाता है, और फूलों को भी किसी प्रकार के हानि नहीं पहुँचने देता, उसी प्रकार मुनि भोजन के लालच से रहित होकर समभाव से गृहस्थों के घर जाकर सहज भाव से बनाये गये भोजन (आहार) में से थोडा-थोडा ग्रहण करते हैं। इससे गृहस्थ को कोई तकलीफ नहीं होती । १३५ ४) रस परित्याग रस परित्याग एक प्रकार का आस्वाद व्रत है । इसमें स्वाद पर विजय प्राप्त करने की साधना की जाती है। घी आदि से निर्मित अति गरिष्ट आहार शरीर में शीघ्र ही मद (विकार) उत्पन्न करता है, जिससे मन चंचल होता है । इन्द्रियाँ उत्तेजित होती हैं तथा संयम के बंधन टूटते हैं। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए 'रसत्याग' आस्वाद व्रत अतीव आवश्यक है। रसयुक्त भोजन साधक के लिए विष के समान माना गया है। दूध, दही, घी, तेल, मधु, मक्खन आदि विकारी रसों का त्याग करना 'रस परित्याग' कहलाता है। इस तप से इन्द्रियों तथा निद्रा पर विजय प्राप्त होती है। संयम बाधा निवृत्ति के लिए घी आदि का त्याग करना रस परित्याग है। १३६ 'तत्त्वार्थराजवातिर्क १३७ में भी यही बात बताई है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy