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________________ 310 ५) विवक्त-शय्यासन-प्रतिसंलीनता तप ब्रह्मचर्य-पालन, जीव-संरक्षण, ध्यानसिद्धि तथा स्वाध्याय आदि के लिए एकांत जगह रहना, सोना या आसन लगाना 'विविक्त-शय्यासन' कहलाता है। विविक्त-शय्यासन का दूसरा नाम प्रतिसंलीनता भी है। आत्मा में लीन होना प्रतिसंलीनता तप है। इन्द्रिय, कषाय, मन, वचन और काया- त्रिविध योगों को बहार से हटाकर आत्मा में लीन होना प्रतिसंलीनता है। प्रतिसंलीनता तप के चार भेद हैं १) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता २) कषाय प्रतिसंलीनता ३) योग प्रतिसंलीनता ४) विविक्त-शय्यासन सेवना . इसका विवेचन सुत्तागमे में किया गया है। १३८ ६) कायक्लेश शरीर को कष्ट देना, उसका दमन करना, इन्द्रियों का निग्रह करना। यह भारतीय अध्यात्म-दर्शन की पृष्ठभूमि है। समस्त दुःख एवं कष्ट शरीर को होते हैं आत्मा को नहीं होते। कष्टों के कारण से पीड़ा होती है। वध करने से शरीर का नाश होता है, परंतु आत्मा का नाश नहीं होता।१३९ . कायक्लेश तप का व्यावहारिक जीवन में भी बहुत महत्त्व है। मनुष्य को कोई भी महान् कार्य सिद्ध करने के लिए कष्ट सहन करने पड़ते हैं। किसी भी अच्छे काम में अनेक संकट आते रहते हैं। श्रेयांसि बहुविध्यानि। परंतु इन संकटों को पार करने के लिए साहस और सहिष्णुतारूपी नौका की आवश्यकता है। साथ ही आत्मबल और मनोबल की आवश्यकता होती है। सुकुमार और कोमल लोग साधना नहीं कर सकते। सुकुमारता का त्याग कर शरीर को आतापना से तपाना चाहिए।१४० कायक्लेश तप हमारे जीवन को सुवर्ण के समान उज्ज्वल बनाता है। यद्यपि साधु को दृष्टि में रखकर या लक्ष्य करके यह तप बताया गया है, परंतु सामान्य मनुष्य भी यह तप कर सकता है। आसन लगाकर ध्यान करना, तप का संकल्प करना, शरीर का ममत्व कम करना, शरीर की आदतों को मर्यादित करना। इस प्रकार संपूर्ण साधना कायक्लेश तप की आराधना है। वास्तविक कायक्लेश तप का उद्देश्य एक ही है। वह है शरीर के प्रति आकर्षण को कम करना अर्थात् शरीर का मोह छोडना, इस उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए जो साधन
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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