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________________ 308 एवं सकाम निर्जरा कहा जाता है। क्योंकि इसमें इच्छापूर्वक कर्मों का क्षय करने का प्रयत्न किया जाता है। जब स्वेच्छा से कष्टों को सहन करके आत्म पुरुषार्थ के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों को नष्ट किया जाता है उसे अविपाकनिर्जरा या सकामनिर्जरा कहते हैं । १२५ यही मुक्ति का मार्ग है। निर्जरा के बारह प्रकार स्थानांगसूत्र में निर्जरा एक प्रकार की बताई गई है- 'एगा निज्जरा' परंतु अन्य स्थानों पर निर्जरा के बारह प्रकारों का भी उल्लेख है, जिस प्रकार अग्नी एक ही होती है, किंतु तृण काष्टादि विविध भेद किये हैं, उसी प्रकार कर्ममल को नष्ट करने रूप निर्जरा तो वस्तुतः एक ही प्रकार की है; किंतु जिन साधनों से यह निर्जरा की जाती है, उन साधनों के आधार पर उसके बारह भेद बताये गये हैं - १) अनशन, २) ऊणोदरी या अवमौदर्य, ३) वृत्तिपरिसंख्यान (भिक्षाचर्या) ४) रसपरित्याग, ५) विवक्तशय्यासन - प्रतिसंलीनता तप, ६) कायाक्लेश, ७) प्रायश्चित, ८) विनय तप, ९) वैयावृत्यतप, १०) स्वाध्याय तप, ११) व्युत्सर्ग तप, १२) ध्यानतप । १२६ उत्तराध्ययनसूत्र १२७ और तत्त्वार्थ राजवार्तिक १२८ में १२ प्रकार के तप का विवेचन है। १ ) अनशन भोजनादि का त्याग करना अनशन तप है। मर्यादित समय के लिए या आजीवन के लिए आहार का त्याग करना अनशन कहलाता है। इसे उपवास या अनशन के रूप में जा जाता है । वैसे तो उपवास रोग निवृत्ति के लिए भी किये जाते हैं, परंतु जो उपवास आध्यात्मिक • विशुद्धि के लिए किया जाता है, वही वास्तविक उपवास है । अनशन का उद्देश्य संयम रक्षण और कर्मों की निर्जरा दोनों ही हैं । १२९ संक्षेप में संयम की साधना, देह के प्रति राग-भाव का विनाश, ध्यान साधना अथवा ज्ञान-साधना के लिए अनशन की आवश्यकता होती है। साथ ही जिनशासन की प्रभावना भी होती है । १३० २) ऊणोदरी या अवमौदर्य ऊणोदरी यह तप का दूसरा प्रकार है। 'ऊन' का अर्थ न्यून या कम होता है । उदर (पेट) की आवश्यकता से कम खाना या उसके कुछ भाग को खाली रखना अवमौदर्य तप कहा जाता है । १३१ इसे अवमौदयारिका १३२ अथवा ऊनोदारी भी कहा जाता है । १३३
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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