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कषाय आस्रव का प्रतिपक्षी- अकषाय संवर है। योग आस्रव का प्रतिपक्षी - अयोग संवर है ।
आस्रव के कारण जीव को संसार परिभ्रमण करना पडता है। परंतु संवर के कारण संसार परिभ्रमण कम होता है । आस्रव हेय है, संवर उपादेय है। आस्रव मोक्ष की चोटी को प्राप्त करने में सहायक नहीं है, जब कि संवर मोक्ष की चोटी को प्राप्त करने में सहायक है। निरास्त्रवी होने का उपाय
गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- 'जीव निरास्त्रवी कैसे होता है?' भगवान महावीर उत्तर दिया- 'हे गौतम! प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तदान, मैथुन, परिग्रह और रात्रि भोजन के विरमण (त्याग) से जीव निरास्रवी होता है। जो पाँच समितियों से युक्त, तीन गुप्तियों से युक्त, कषायरहित, जितेन्द्रिय, गौरवरहित और नि:शल्य होता है, वह जीव निरास्त्रवी होता
११८कार महावीर से पूछा- 'भन्ते! प्रत्याख्यान करने से (संसारी विषयवासना का त्याग करने से) जीव को क्या लाभ होता है? भगवान ने उत्तर दिया 'हे गौतम! प्रत्याख्यान .से जीव आस्रवद्वार बंद करता है और इच्छानिरोध करता है । इच्छा निरोध के कारण जीव सब द्रव्यों से तृष्णारहित होता है और शांत बनता है ।'
इस कथन का सार यही है कि, अप्रत्याख्यान आस्त्रव है । उसके कारण कर्मों का आगमन होता है। जो प्रत्याख्यान करता है, उसकी आत्मा में नये कर्मों का प्रवेश नहीं
। ११९ गौतम ने पूछा, 'भगवान्! अनेक जन्मों में संचित किये गये कर्मों से मुक्ति कैसे प्राप्त होगी?' प्रभु ने कहा, 'जिस प्रकार तालाब का पानी आने का मार्ग बंद करने पर और अंदर का पानी निकालने पर वह सूर्य की उष्णता से सूख जाता है, उसी प्रकार पाप कर्म के
व को रोकने पर अर्थात् निरास्त्रवी होने पर साधक के अनेक जन्मों के संचित कर्म तप द्वारा नष्ट हो जाते हैं । '१२०
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट होता है कि नवीन कर्म के आगमन का निरोध करना या आव को रोकना, कर्म से मुक्त होने की प्रथम सीढी है। जो आस्त्रवरहित होता है, उसके अति जड़कर्म भी तप से नष्ट हो जाते हैं। जीव तालाब के समान है । आस्रव जल मार्ग के समान और कर्म पानी के समान है। जीवरूपी तालाब को कर्मरूपी पानी से खाली करने के लिए आस्रवरूपी झरना पहले बंद करना चाहिए।
जैनागम में आस्त्रवद्वार के निरोध का उल्लेख अनेक जगह आया है। इसका कारण यह है कि आस्रव पापकर्म के आगमन का हेतु है। नया कर्म बंध न हो इसलिए पहले उसे रोकना आवश्यक है। जिस प्रकार कर्म से मुक्त होने के लिए नवीन कर्म से दूर रहना आवश्यक है, उसी प्रकार पूर्व संचितकर्म से मुक्त होने के लिए निरास्त्रवी होना आवश्यक है ।