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________________ 305 निष्कर्ष जीव में आस्रव द्वारा कर्मागमन होता है क्योंकि जीव के अच्छे-बुरे परिणाम पुण्यपाप के आस्रव से होते हैं। कर्म प्रवेश मार्ग को आत्मप्रदेश से दूर रखना जीव का कर्तव्य है। कर्म, पुद्गल होने पर भी आत्मप्रदेश में इस प्रकार आता है कि जीव अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा को पहचान नहीं सकता। उसी प्रकार मन, वचन और काया की क्रियाओं को भी नहीं रोक सकता। इसलिए कर्म पुद्गलों को आने से रोकना ही साधक की सिद्धि है। जिस जीव ने आस्रव का निरोध कर अपने आत्म स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसे आध्यात्मिक दृष्टि से 'तत्त्वज्ञानी' कहा गया है। जो मिथ्यात्व के कारणों से रहित बनकर तथा ममत्वरहित होकर वीतरागता के मार्ग का अनुसरण करता है, वही आस्रव से मुक्त हो सकता है। यदि जीव को कर्मबंध का मुख्य कारण आस्रवद्वार का यथार्थ ज्ञान हो जाये अर्थात् कर्म कैसे आते हैं? कर्मों का बंध कैसे होता हैं? आस्रव के कारण संसार परिभ्रमण कैसे करना पडता है? इन सभी का ज्ञान हो जाये तभी वह आस्रव से परावृत होने का प्रयत्न कर सकता है। कर्मों का निर्जरण : निर्जरा कर्मों से मुक्त करने वाला तत्त्व निर्जरा है। निर्जरा का अर्थ है पूर्वकृत कर्मों का झड़ जाना। कर्मों की निर्जरा भी क्रमपूर्वक होती है, मोक्षलक्षी बनकर किये जाने वाले तप से जो निर्जरा होती है वह सकाम निर्जरा है और कर्मफल को आर्तध्यान, रौद्रध्यानपूर्वक भोगने के बाद कर्मों का झड़ जाना अकाम निर्जरा है। शारीरिक मानसिक-आत्मिक समाधि का एवं दुश्चिन्ताओं से उबरने का एक मात्र उपाय तप साधना है। तप का अर्थ है, स्वेच्छा से दुःखों का स्वीकार करके उन पर विजय प्राप्त करना। जैसे प्रज्वलित अग्नी घास को जला डालती है, वैसे ही तप की अग्नी कर्मों को जला देती है। स्थूल शरीर जनित ताप की आँच सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करे तभी वह ताप सम्यक् तप कहलाता है। जो मोक्ष की ओर ले जाता है देखादेखी, प्रतिस्पर्धापूर्वक एवं इच्छापूर्ति के लिए किया गया तप बालतप है जो संसार वृद्धि का कारण है। कर्मविज्ञानवेत्ताओं ने कर्म बाँधने और मुक्त होने के तत्त्व को अलग-अलग नाम दिये हैं। कर्मों का बंधन कराने वाला तत्त्व 'बंध' है कर्मों से मुक्त कराने वाला तत्त्व निर्जरा है। निर्जरा का अर्थ पूर्वकृत कर्मों को क्षय करना, झड़ना। जैसे पक्षी पंख फडफडा कर उस पर लगी हुई धूल को झाड़ देता है, उसी प्रकार आत्मा अपने पर लगी हुई कर्म रज को झाड़ देती
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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