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ज्ञानकाण्ड में उपनिषद् आते हैं। जिनमें आत्मा, परमात्मा, बह्म, विद्या, अविद्या इत्यादि तत्त्वों का विवेचन है। आध्यात्मिक ज्ञान की दृष्टि से उपनिषदों का भारतीय साहित्य में बहुत महत्त्व है। . वेदों के अतिरिक्त स्मृतियाँ, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, पुराण, इतिहास आदि के रूप में और भी विशाल साहित्य है, जिसमें वैदिक संस्कृति के आदर्शों का विवेचन है।
विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार महर्षि गौर्भका न्याय, कणाद का वैशेषिक, कपिल का सांख्य, पातंजल का योग, जैमिनी का पूर्व मीमांसा और बादरायण का उत्तर मीमांसा अथवा वेदांत ये सब वैदिक दर्शन के नाम से जाने जाते हैं क्योंकि ये वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं।६ श्रमण संस्कृति
श्रमण संस्कृत शब्द है। उसका प्राकृत रूप 'समण' है। इसके मूल में संस्कृत के श्रम, शम तथा सम इन तीनों शब्दों का प्राकृत में एक मात्र 'सम' ही होता है। समण वह है जो पुरस्कार के पुष्पों को पाकर प्रसन्न नहीं होता और अपमान के हलाहल से खिन्न नहीं होता, अपितु सदा मान, अपमान में सम रहता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- सिर मुंडा लेने से कोई समण नहीं होता, किंतु समता का आचरण करने से समण होता है। ___ सूत्रकृतांग सूत्र में समभाव की अनेक दृष्टियों से व्याख्या करते हुए लिखा है- मुनि को गोत्र-कुल आदि का मद न करके दूसरों के प्रति घृणा न रखते हुए सदा समभाव में रहना चाहिए। जो दूसरों का अपमान करता है वह दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। अत: मुनि मद न कर समता में रहे ।१० चक्रवर्ती दीक्षा (संयम) लेने पर अपने से पूर्व दीक्षित अनुचर को भी नमस्कार करने में संकोच न करें, किंतु समता का आचरण करें। प्रज्ञा संपन्न मुनि क्रोध आदि कषायों पर विजय पा कर समता धर्म का निरूपण करें।११ जो समण 'श्रमण' शब्द श्रम, शम तथा सम के साथ संपृक्त तीन प्रकार के अर्थों से जुड जाता है।
श्रम का अर्थ उद्यम तथा व्यवसाय है, जो श्रमण के संयम, सदाचरण तथा तपोमय जीवन का द्योतक है। एक श्रमण अपनी साधना में सतत प्रयत्नशील, पराक्रमशील रहता है। ज्ञान की साथ क्रियाशीलताएँ उनके जीवन की विशेषताएँ हैं। श्रम में क्रियाशीलता सन्निहित है। शम, निर्वेद, वैराग्य एवं त्याग का बोधक है। त्याग श्रमण जीवन का अलंकरण है। सम का अभिप्राय: प्राणिमात्र के प्रति समत्वभाव रखना। अहिंसा एवं करुणा जीवन में तभी फलित होती है, जब व्यक्ति के अंतकरण में 'आत्मवत् सर्व भूतेषु' का भाव हो। विश्वमैत्री का यही मूलमंत्र है। श्रमण के विश्व वात्सल्यमय जीवन का समत्व में संसूचन है। श्रमण