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अकषाय
अप्रमाद के बाद अकषाय का क्रम आता है। अकषाय कर्मास्त्रव को रोकने का चौथा उपाय है। अकषाय के द्वारा मानव मोक्ष तक पहुँच सकता है। कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ । इस अनंत कषाय-चतुष्क के कारण ही आत्मा को संसार परिभ्रमण चतुष्क का त्याग करना चाहिए तथा अकषायी बनना चाहिए।११२ अयोग
कर्मबंध से मुक्त होने का पाँचवा संवर अयोग है। अयोग का अर्थ है मन, वचन और काया की विकारोत्पादक वृत्तियों का निग्रह करना। दूसरे के अनिष्ट का चिंतन न करना। दुष्ट इच्छा करना, ईर्षा और बैरभाव रखना ये दुष्ट मनोयोग है। किसी की निंदा करना, गाली देना, झूठा कलंक लगाना तथा असत्य बोलना, ये अशुभ वचन योग है। चोरी एवं कुकर्म करना आदि अशुभ काययोग है। जब इन अशुभ प्रवृत्तियों को रोका जायेगा और जीव द्वारा शुभ प्रवृत्ति होगी तभी कर्माश्रव रुकेगा। योग शुभ और अशुभ दो प्रकार के हैं। जब योग के साथ कषाय का संबंध होता है तब वे अशुभ होते हैं। योग पर विजय प्राप्त करने के उपाय हैं दोष का निग्रह करना तथा उन्हें दूर करना यही अयोग संवर है।११३
जो जीव शुक्लध्यानरूप अग्निद्वारा घाती कर्मों को नष्ट करके योगरहित होता है उसे अयोगी या अयोगकेवली कहते हैं। जहाँ अयोग वहाँ संवर
समवायांगसूत्र में योग को आस्रव और अयोग को संवर कहा है। जब तक योग है, तब तक आस्रव है और जहाँ आस्रव है वहाँ कर्म का बंध है। जब तक आत्मा चौदहवें गुणस्थान तक नहीं पहुँच जाती तब तक योग तो रहेगा। योग के दो भेद हैं - शुभयोग और अशुभयोग। शुभयोग को शुभ-आस्रव (पुण्य) और अशुभयोग- अशुभ-आस्रव (पाप) कहते हैं। साधना की दृष्टि से विचार करें तो मन, वचन और काया द्वारा किसी भी प्रवृत्ति का विचार सर्वप्रथम मन में होता है। मन से होने वाली अंतरंग भाव धाराओं को तीन भागों में विभक्त किया है- अशुभ, शुभ और शुद्ध। जब क्लिष्ट एवं निकृष्ट तीव्र भावधाराएँ बहती हैं। तब अशुभ भावों से अशुभ आस्रव का आगमन होता है। शुभ भाव धारा जब पनपती है तो मन में करूणा सहानुभूति, मृदुता आदि की लहरें उठती हैं और क्रमश: विस्तृत होती जाती हैं। इस प्रकार शुभ और अशुभ के कई रंग मिलेंगे। कर्मक्षय के लिए शुभ और अशुभ दोनों को छोडकर शुद्ध बनकर अयोग अवस्था को प्राप्त करना साधक का लक्ष्य होना चाहिए।