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७ उपभोग परिभोग परिमाणव्रत। ८ अनर्थदंड विरमणव्रत। चार शिक्षाव्रत ९ सामायिक व्रत १० देशावकासिक व्रत ११ पौषधव्रत १२ अतिथि संविभाग व्रत।
इस प्रकार श्रावक के लिए १२ अणुव्रतों का विधान शास्त्रों में बताया गया
__ असंयम पाप का हेतु है। जब तक पापों को स्वेच्छा से, विधिपूर्वक व्रत अंगीकार करके छोड़ा नहीं जाता, तब तक आत्मा इन पापों के प्रति आसक्त रहती है। भले ही उस समय वह पापकर्म में प्रवृत्त न हुई हो तो भी अविरति के दुष्परिणामों के कारण निरंतर पापों का स्रोत बहता रहता है। अत: प्रत्येक साधक को विरति-संवर की साधना व्रत प्रत्याख्यान एवं त्याग नियम के रूप में करनी चाहिए।
अप्रमाद
आत्म-प्रदेशों में होने वाले अनुत्साह का क्षय करना अप्रमाद है। धर्म के बारे में उत्साह रखना अप्रमाद है। दूसरे शब्दों में कहें तो अप्रमाद का अर्थ है सत्कार्य करने में शिथिलता न करना अर्थात् प्रत्येक सत्कार्य को उत्साह, आदर और श्रद्धा के साथ करना, इसलिए इसका विधेयात्मक अर्थ हुआ जागरुकता, सावधानी रखना अप्रमाद है।
अधिकांश लोग कहते हैं जब किसी भी प्रवृत्ति को करने से कर्मबंध होता है तो अच्छा है कि कोई प्रवृत्ति ही न की जाये। उनका यह कथन यथार्थ नहीं है, क्योंकि प्रवृत्ति के बिना जीवन नहीं चल सकता। अत: मनष्य को यतनापर्वक अर्थात विवेक से प्रवत्ति करना आवश्यक है। असंयम से निवृत्ति करके संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए। अकर्मण्य होकर बैठ जाने का नाम निवृत्ति नहीं है, अपितु सावध योगों से विरत होना निवृत्ति है।
सभी प्रकार के प्रमादों का त्याग करके साधक को अप्रमत्त दशा में रमण करना चाहिए। पाँच महाव्रतों, पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों को धारण करना और सब प्रकार के कषायों का त्याग करना अप्रमाद कहलाता है। १११
इस प्रकार अप्रमाद-संवर की ये साधनाएँ अवश्यमेव उपादेय हैं और कर्ममुक्ति के अभिलाषी साधकों के लिए अभीष्ट भी हैं।