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________________ है वह भी जीर्ण-शीर्ण और व्याधिग्रस्त हो जाता है और एक दिन सदा के लिए चला जाता है। यह सत्य, सच्चाई, परिवार, धन, वैभव, संपत्ति आदि सभी पर घटित होती है। यह सभी क्षणभंगुर हैं। शरीर, परिवार, भौतिक सुख आदि की नश्वरता के भाव ने मानव को आत्मा की ओर प्रेरित किया। उसके फल स्वरूप वह आत्मा-स्वरूप की गवेषणा से संलग्न रहा और उसने अनुभव किया कि आत्मा ही सत्य है, परमतत्त्व है। उसने आप्त पुरुषों के वचनों से यह भी ज्ञात किया कि आत्मा में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतबल है। वह कर्मों के आवरणों से आच्छादित हैं। अपने पराक्रम, उद्यम और पुरुषार्थ द्वारा जीव कर्मावरण हटा सकता है, नष्ट कर सकता है तथा अपने परम दिव्य स्वरूप का साक्षात्कार कर सकता है। आध्यात्मिक शक्ति जागरण का यह प्रसंग है- जिसने मानव को भौतिक एषणाओं, अभिप्साओं और आकर्षणों से दूर किया। भारतीय संस्कृति की त्रिवेणी संस्कृति एक ऐसा विराट तत्त्व है, जिसमें ज्ञान, भाव और कर्म ये तीन पक्ष हैं, जिसे दूसरे शब्दों में बुद्धि, हृदय और व्यवहार कहा जाता है। इन तीनों तत्त्वों का पूर्ण सामंजस्य होता है वह संस्कृति है। संस्कृति में १) तत्त्वज्ञान, २) नीति, ३) विज्ञान और ४) कला इनका समावेश होता है। किसी लेखक ने लिखा है- बाहर की ओर देखना विज्ञान है, अंदर की ओर देखना दर्शन और ऊपर की ओर धर्म है। कला मानव जीवन का विकास है अर्थात् संस्कृति में धर्म, दर्शन, विज्ञान और कला विद्यमान हैं। संस्कृति को अंग्रेजी में (कल्चर) कहा जाता है। भारत वर्ष की विशेषता है कि जब संसार के अन्यान्य देशों के लोग केवल बहिर्जीवन या शारीरिक सुख प्राप्त करने तक ही सीमित थे, जबकि भारत के ज्ञानी पुरुषों ने आत्मा के सूक्ष्म चिंतन में अपने आपको लगाया। शाश्वत एवं पवित्र विचार मनुष्य के कर्ममयजीवन को सार्थक बनाते हैं। उत्तम विचार और आचार का यह स्रोत उच्च कोटी के संस्कारों को जन्म देता है। वे संस्कार स्थिर, पवित्र और श्रेयस्कर होते हैं। संस्कारों की उस धारा को संस्कृति कहा जाता है। नि:संदेह भारतवर्ष सांस्कृतिक विकास और उन्नति की दृष्टि से बहुत ही सौभाग्यशाली रहा है। भारतीय संस्कृति राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध और गांधीजी की है। राम की मर्यादा, कृष्ण का कर्मयोग, महावीर की सर्वभूत हितकारी अहिंसा और अनेकान्त, बुद्ध की करूणा, गांधी की धर्मानुप्रणीत राजनीति और सत्य का प्रयोग ही भारतीय संस्कृति है - 'दयतां, दीयतां, दम्यताम्'- याने दया, दान और दमन ही भारतीय संस्कृति का मूल हैं।३
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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