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प्रथम प्रकरण कर्म सिद्धांत के मूलग्रंथ : आगम वाङ्मय
मानव जीवन और धर्म
संसार के सभी प्राणियों में शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं अध्यात्मिक दृष्टि से मानव का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। मानव ही एक ऐसा मननशील प्राणी है, जो अपने हित अहित का यथावत् रूप में चिंतन करने में और उसके अनुसार क्रियाशील होने में सक्षम है। इसलिए मानव जीवन को बड़ा दुर्लभ और मूल्यवान माना गया है। इसी जीवन में मनुष्य यदि सन्मार्ग का अवलंबन कर कार्यशील रहे तो वह उन्नति के चरम शिखर पर पहुँच सकता है। जीवन की परिभाषा
शरीर और आत्मा का सहवर्तित्व जीवन है, जो पूर्वकृत कर्मों पर आधारित है। कर्मों का आत्मा के साथ अनादि काल से संबंध चला आ रहा है।
जब तक सत्य का यथार्थ बोध नहीं होता तब तक मनुष्य की दृष्टि शरीर पर रहती है, आत्मा पर नहीं। शारीरिक सुख, सुविधा, भोग, उपभोग आदि पदार्थों में उसका मन ग्रस्त रहता है। भौतिक सुख सुविधायें प्राप्त करने का साधन धन है। धन एक ऐसा पदार्थ है, वह ज्यों ज्यों प्राप्त होता है, त्यों त्यो प्राप्त करनेवाले की इच्छायें उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं।
___ "इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।" इच्छायें आकाश के समान अनंत होती हैं। भौतिक सुखों में विभ्रांत मानव उन्हें पाने के लिए चिरकाल से दौड़ रहा है, पर वास्तविकता यह है कि- जिन्हें वह सुख मानता है, वे नश्वर हैं। इतना ही नहीं वे दु:खों के रूप में परिणत हो जाते हैं। जिस शरीर के प्रति उसे अत्यधिक ममत्व है वह भी जीर्ण-शीर्ण, व्याधि ग्रस्त हो जाता है और एक दिन वह चला जाता है। यही बात परिवार पर और धन संपत्ति पर भी लागू होती है। ये सभी पदार्थ क्षणभंगुर हैं, परिवर्तनशील हैं। जिन भोगों को भोगने में मानव सुख मानता है, वे भोग, रोगों के कारण बन जाते हैं। "खणमित्त-सुक्खा बहुकाल-दुक्खा'' वे क्षणिक सुख चिरकाल तक दुख देने वाले होते हैं।२ अध्यात्म एवं धर्म की भूमिका ___ भौतिक सुखों में विभ्रांत मानव उन सुखों को प्राप्त करने के लिए चिरकाल से अविश्रांत रूप से दौड रहा है, किन्तु वास्तविकता यह है कि जिन्हें वह सुख मानता है वे नश्वर हैं। इतना ही नहीं, वे दुःख रूप में परिणत होते हैं। जिस शरीर के प्रति मानव को सबसे अधिक ममता