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समझकर न मारें, न मारने की प्रेरणा दें। सुखाभिलाषी प्राणियों को जो अपने सुख की चाह को लेकर दुःख देता है, वह मारकर सुख प्राप्त नहीं करता। इसके विपरीत जो सुखाभिलाषी जीवों को अपने सुख की लिप्सा से कभी दुःख नहीं देता, वह मरकर सुख प्राप्त करता है।' तथागत बुद्ध 'सुत्तनिपात१७४ में स्वयं कहते हैं- 'जैसा में हैं वैसा ही ये अन्य जीव भी हैं; जैसे ये अन्य जीव हैं, वैसे ही मैं हूँ।' इस प्रकार सभी को आत्मतुल्य समझकर किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए'' यही कर्म के एकांत शुभत्व का मूलाधार है। जैन दृष्टि से कर्म के एकांत शुभत्व का आधार : आत्मतुल्य दृष्टि
जैनदर्शन के अनुसार भी कर्म के एकांत शुभत्व का मूलाधार आत्मोपम्य दृष्टि है। अनुयोगद्वारसूत्र में बताया गया है- 'जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियों पर सम्यक्त्वयुक्त (सम) रहता है, उसी की सच्ची सामायिक (समत्वयोग) की साधना होती है, ऐसा वीतराग केवली भगवान का कथन है।' संसार के समस्त षट्कायिक प्राणियों को आत्मतुल्यमानो प्राणियों के प्रति आत्मतुल्य व्यवहार करो।१७५ इत्यादि आगमवचन कर्म के एकांत शुभत्व के सूचक हैं। सांसारिक और छद्मस्थ मनुष्य के जीवन में शुभाशुभ कर्मों की धूप-छाँव चलती रहती है, परंतु एक बात निश्चित है कि, जो व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टिकोण रखकर व्यवहार करता है और प्रतिक्षण प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति या चर्या करते समय अप्रमत्त, सावधान, यत्नाशील रहता है, उसके अशुभकर्म का बंध उस समय नहीं होता, क्योंकि वह प्रतिपल सावधान होकर कर्मों के आगमन (आस्रव) के द्वारों को बंद कर देता है
और मन इन्द्रियों को संयम में रखकर चलता है। वह प्रत्येक क्रिया का ज्ञाता द्रष्टा रहता है तथा मनोज्ञ-अमनोज्ञ, प्रियता-अप्रियता, संयोग-वियोग के प्रति राग-द्वेष नहीं करता। वह प्रत्येक परिस्थिति में समभाव से भावित रहता है। उसमें ज्ञान चेतना रहती है, कर्मफल चेतना की आकांक्षा नहीं रखता है।१७६
निष्कर्ष यह है कि, ऐसा सावधान छद्मस्थ साधक शुद्धोपयोग में रहने के लिए प्रयत्नशील रहता है, परंतु प्रशस्त रागवश बीच-बीच में अशुभयोग में विरत होने अथवा अशुभयोग का निरोध करने हेतु शुभयोग में प्रवृत्त रहता है। पूर्वबद्ध शुभ-अशुभ कर्म उदय में आने पर भी वह सावधान होकर समभाव से उन्हें भोगता है या संक्रमण करके अशुभ को शुभ रूप में परिणत कर लेता है। शुद्ध कर्म की व्याख्या
जैन कर्मविज्ञान की दृष्टि से शुद्धकर्म तात्पर्य उस जीवन व्यवहार से है, जिसमें किसी भी क्रिया की प्रवृत्ति के पीछे रागद्वेष नहीं होता, व्यक्ति केवल उस क्रिया या प्रवृत्ति का ज्ञाताद्रष्टा होता है। ऐसा शुद्ध कर्म आत्मा को बंधन में नहीं डालता। वह अबंधक कर्म (अकर्म) है। जैनदर्शन ने साधक का लक्ष्य शुभ-अशुभ अथवा मंगल-अमंगल से ऊपर