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________________ 270 नहीं है, ऐसा जानकर जो स्वयं हिंसा नहीं करता, नहीं करवाता है, वही समत्वोपयोगी सममना श्रमण है।१६८ जैन विचारकों ने कर्म के हेतु (उद्देश्य) और परिणाम के आधार पर भी उसके शुभाशुभत्व का विचार किया है, परंतु मुख्यता कर्ता के अभिप्राय को ही दी है। एक व्यक्ति अंधे को अंधा, काने को काना और चोर को चोर कहता है। स्थूल दृष्टि से यह सत्य होते हुए भी पारमार्थिक दृष्टि से असत्य माना गया है क्योंकि ऐसा कहने (कथन क्रिया) के पीछे वक्ता का आशय, उसके हृदय को चोट पहुँचाना है, उसे हेय या तिरस्कृत दृष्टि से देखकर उसकी आत्मा का अपमान करना है, इसलिए ऐसा वाचिक कर्म बाहर से शुभ प्रतीत होने पर भी अंतरंग से आध्यात्मिक एवं नैतिक दृष्टि से अशभु है।१६९ यद्यपि बंध और अबंध की दृष्टि से विचार करने पर एक मात्र शुद्ध कर्म ही अबंध है, शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मबंध है। शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों में रागभाव तो होता ही है। राग के अभाव में किया हुआ कर्म शुभाशुभत्व की भूमिका से ऊपर उठकर शुद्धत्व की भूमिका में पहुँच जायेगा। वैदिक धर्मग्रंथों में शुभत्व का आधार : आत्मवत् दृष्टि भगवद्गीता और महाभारत में कर्म के शुभत्व का प्रमाण व्यवहार दृष्टि से समस्त प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है। यह आधार व्यक्ति सापेक्ष, समाज सापेक्ष भी है। भगवद्गीता में कहा गया है- जो व्यक्ति सुख और दुःख में समस्त प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखकर व्यवहार करता है, वही गीता की भाषा में परमयोगी और परम शुभकर्मा है। महाभारत में कहा है - 'जो जैसा अपने लिए चाहता है, वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करे।' इसी प्रकार आगे कहा गया है- 'त्याग, दान, सुख-दु:ख, प्रिय-अप्रिय सभी में दूसरे को अपनी आत्मा के तुल्य मानकर व्यवहार करो।' जो दूसरे प्राणियों के प्रति आत्मवत् व्यवहार करता है, वही स्वर्ग के दिव्य सुखों को प्राप्त करता है। जो व्यवहार स्वयं को प्रिय लगता है, वही व्यवहार दूसरे के प्रति किया जाए, यही धर्म (शुभ) और अधर्म (अशुभ) की पहचान है।१७० महाभारत शान्तिपर्व१७१ और महाभारत अनुशासन पर्व१७२ में भी यही बात कही है। बौद्ध धर्मग्रंथों में कर्म शुभत्व का आधार : आत्मौपम्य दृष्टि बौद्ध धर्म में कर्म के शुभत्व का आधार ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु' को ही सर्वत्र माना गया है। धम्मपद१७३ बुद्ध ने स्पष्ट कहा है। सभी प्राणी दंड (मरणांत कष्ट) से डरते हैं। मृत्यु से भी लोग भयाविष्ट हो जाते हैं। सबको जीवन प्रिय है। अत: सभी प्राणियों को आत्मतुल्य
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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