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________________ 268 शब्द में अभिहित कर सकते हैं। शास्त्र में प्रथम दो को शुभास्रव और अशुभास्त्रवरूप तथा अंतिम को संवर, निर्जरारूप बताया गया है। अंतिम अकर्म या शुभकर्म को ईर्यापथिक कर्म भी कहा गया है। ___ डॉ. सागरमल जैन ने कर्म के इन तीन रूपों का पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से इस प्रकार सामंजस्य बिठाया है। 'जैनदर्शन का ईर्यापथिक कर्म अतिनैतिक कर्म है, पुण्य (शुभ) कर्म नैतिक कर्म है और पाप (अशुभ) कर्म अनैतिक कर्म है।' इसी प्रकार गीता और बौद्ध दर्शन के साथ भी इसकी संगति इस प्रकार बिठाई है- 'गीता का अकर्म अतिनैतिक, शुभकर्म या कर्म नैतिक और विकर्म अनैतिक है। बौद्ध दर्शन में अनैतिक, नैतिक, कुशल, और अव्यक्तकर्म अथवा (दूसरे शब्दों में) कृष्ण, शुक्ल और अकृष्ण अशुक्ल कर्म कहा गया है। १५१ शुभ-कर्म: स्वरूप और विश्लेषण ___ जैन कर्मविज्ञान के अनुसार शुभ (पुण्य) कर्म शुभ पुद्गल परमाणु हैं, जो जीव के शुभ परिणामों एवं तदनुसार शुभभावपूर्वक दान, परोपकार, सेवा, दया आदि की क्रियाओं के कारण आकर्षित होकर शुभ आस्रव के रूप में आते हैं।१५२ और फिर रागादिवश बंध जाते हैं तत्पश्चात् अपने विपाक (फलभोग) के समय शुभ विचारों, शुभ परिणामों और शुभ कार्यों की ओर प्रेरित करते हैं। इसके अतिरिक्त वे आध्यात्मिक, मानसिक, सामाजिक एवं भौतिक विकास के अनुरूप संयोग भी उपस्थित करते हैं। शुभ कर्म के प्रभाव से कभीकभी आरोग्य, सुख-सुविधा, सुख-सामग्री, भौतिकसंपदा तथा अनुरूप परिवार, मित्रजन समाज भी उपलब्ध होते हैं तथा सम्यग्ज्ञानादि धर्माचरण की भावना भी वे जागृत कर देते हैं।१५३ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में शुभकर्म (पुण्य) के उपार्जन में दान, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रवृत्तियों के कारण बताये हैं।१५४ स्थानांगसूत्र में पुण्योपार्जन के अन्नपुण्य आदि नौ प्रकार भी बताये हैं।१५५ सूत्तागमे में यही बात आयी है।१५६ अशुभ कर्म : स्वरूप और विश्लेषण अशुभकर्म (पाप) का स्वरूप जैनदृष्टि से इस प्रकार है- जिनसे आत्मा का पतन हो, जो आत्मा को बंधन में डालें, आत्मा के आनंद का शोषण करें तथा आत्म शक्तियों का घात करें, वे पापकर्म अशुभकर्म हैं। वास्तव में जिस विचार और आचरण से स्व-पर का पतन, अहित हो एवं अनिष्ट फल प्राप्त हो, वह अशुभकर्म पाप है और वह दूसरों के लिए तथा अपने लिए पीड़ा, विपत्ति, दुःख और विनाश का कारण है। अशुभ कर्म के अंतर्गत हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, परिग्रहवृत्ति, अतिलोभ, द्वेष एवं अज्ञानता आदि कारण आते हैं। इसलिए दुर्भावना, दुर्विचार एवं दुष्कर्म अशुभ कर्म हैं।१५७
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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