SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 267 किये गये हैं- एक को कर्म (शुभबंधक) कहा तथा दूसरे को विकर्म (अशुद्ध बंधक), यही कर्म-विकर्म, अकर्म का निष्कर्ष है। कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप कर्मविज्ञान इतना गूढ़, दुरूह तथा अर्थों और रहस्यों से भरा है कि- सहसा, उसका आकलन और हृदयंगम करना आसान नहीं है। जिस प्रकार जल से परिपूर्ण महासमुद्र में ज्वार-भाटे आते रहते हैं, उसी प्रकार विविध कर्मरूपी जल से परिपूर्ण संसारसमुद्र में भी आस्रव-बंध और संवर-निर्जरा के ज्वारभाटे आते रहते हैं। कर्म जल की महातरंगे भी प्रतिक्षण विविधरूप में तीव्र, मंद, मध्यम गति से उछलती रहती हैं और कभी वे शांत और सुस्थिर भी हो जाती हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि- जो नौका छिद्र युक्त है वह संसार समुद्र से पार नहीं हो सकती, किन्तु जो नौका छिद्र रहित है, वह पार हो सकती है। शरीर नौका है, जीव (आत्मा) नाविक है और (कर्मजल से परिपूर्ण) संसार समुद्र है, जिसे महर्षि पार कर जाते हैं। १५० कर्मजल से परिपूर्ण संसार रूप महासमुद्र में भी तीन प्रकार के नाविक होते हैं। जो अकुशल नाविक होते हैं, उनकी नौका संसार समुद्र में पापों का ज्वार आने से तथा अशुभ कर्मों की उत्ताल तरंगों की मार से जर्जर और सच्छिद्र हो जाती है। और शीघ्र ही संसारसमुद्र में डूब जाती है। दूसरे प्रकार के नाविक अर्धकुशल होते हैं। उनकी जीवन नौका सच्छिद्र होते हुए भी डूबती उतरती रहती है। व्रत नियम आदि पुण्य से अपनी नैया की वे मरंमत करते रहते हैं। तीसरे प्रकार के अतिकुशल नाविक वे हैं, जो शुभ-अशुभ कर्मजल के ज्वार के समय डूबते, उतराते नहीं। कष्टों, परिषहों विपत्तियों के आँधी और तूफानों के समय समभाव रूपी चप्पू से अपनी जीवन नैया को पार करते हुए शुद्ध और प्रशांत कर्मजल में आगे से आगे संवर, निर्जरा के जलमार्ग से बढते रहते हैं। ऐसे महाभाग महर्षि अति कुशल नाविक होते हैं, जो एक दिन संसारसमुद्र को पार करके सर्व कर्म जल से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। .. संसाररूपी समुद्र में भी त्रिविध नाविकों के अनुरूप तीन प्रकार के कर्म हैं- १) अशुभ, २) शुभ और ३) शुद्ध। जब तक जीव संसार समुद्र में है, तब तक उसे यह जानना और समझना आवश्यक है कि, ये तीन प्रकार के कर्म कैसे-कैसे होते हैं? इनका लक्षण और स्वरूप क्या-क्या है? शुभ कर्म को 'कर्म' अशुभ कर्म को 'विकर्म' और शुद्ध कर्म को 'अकर्म' के रूप में पहले बतलाया है। इन तीनों को दूसरे शब्दों में कहना चाहे तो क्रमश: पुण्य, पाप और धर्म
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy