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महावीर के कर्म और अकर्म के दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है कि 'प्रमाद को ही कर्म' (बंधककर्म) कहा गया है । तथा अप्रमाद को (अबंधककर्म) कहा गया है।१२९
इसका तात्पर्य यह है कि, कर्म केवल सक्रियता या प्रवृत्तिमात्र नहीं हैं, किंतु किसी भी प्रवृत्ति या क्रिया के पीछे अ-जागृति प्रमाददशा या आत्मस्वरूप के भान का अभाव होना कर्म है। इसी प्रकार अकर्म का अर्थ एकांत निवृत्ति या निष्क्रियता नहीं, अपितु प्रवृत्ति या निवृत्ति के साथ सतत जागृति/अप्रमत्त दशा अथवा आत्मस्वरूप का भान है।
__ अगर एकांत निष्क्रियता को ही अकर्म कहा जाये, तो मृत प्राणी या पृथ्वीकायादि पाँच प्रकार के स्थावर जीव स्थूलदृष्टि से निष्क्रिय होने से उनकी निष्क्रियता या निवृत्ति को अकर्म कहना पडेगा, जो कर्म सिद्धांत से संमत नहीं है।१३० जैन-कर्म-सिद्धांत की दृष्टि से आत्मा अविनाशी और शाश्वत है। इसलिए स्थूल शरीर चाहे छूट जाए सूक्ष्म एवं सूक्ष्मतर (तैजस और कार्मणो शरीरतोजीवकेसाथ जन्मजन्मांतर तक, तब तक रहता है जब तक वह कर्मों से मुक्त नहीं हो पाता। १३१ सकषायी जीव हिंसादि में अप्रवृत्त होने पर भी पाप का भागी
पुरुषार्थसिद्धयुपाय ३२ में कहा गया है कि, कोई व्यक्ति निष्क्रिय अवस्था में है, कुछ भी चेष्टा नहीं कर रहा है, किंतु रागादि के वश है और नहीं, हिंसादि पापों से विरत (निवृत) या विरक्त नहीं है, ऐसा व्यक्ति बाह्यरूप से हिंसादि न करता हुआ भी पाप कर्म के फल का भागी बन जाता है। ऐसे प्राणी हिंसा करें या न करें उसने अपने आत्मा की तो भावहिंसा करली।
भगवतीसूत्र में१३३ वर्णन आता है कि, एक शिकारी किसी मृग आदि पर बाण (शस्त्र) चलाता है, किन्तु दैवयोग से बाण उस पर नहीं लगता। ऐसी स्थिति में वह प्राणी भले ही उसके बाण से न मरा हो, न ही घायल हुआ हो फिर भी उस शिकारी (व्यक्ति) के प्राणातिपात रूप सांपरायिकी क्रिया लग चुकी। फलत: बाहर से निष्क्रियता की स्थिति होने पर भी उसे प्राणातिपात (हिंसा) की क्रिया लग जाती है और पाप कर्म का बंध भी होता है।
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि, दैनिक चर्या में ईर्या समिति नीचे देखकर चलते हुए तो साधु के पैर के नीचे यदि कोई जीव मर जाता है तो साधु को ईर्यापथिक क्रिया लगती है, सांपरायिकी नहीं, अर्थात् उसकी वह क्रिया प्रमाद एवं कषाय युक्त योग से नहीं होती इसलिए कर्मबंध नहीं होता। कर्मबंधक न होने के कारण, वह कर्म होने पर भी अकर्म कहलाती है। बल्कि वीतराग अवस्था में समस्त क्रियाएँ संवर एवं निर्जरा के कारण होने से भी अकर्म की कोटि में आती हैं।१३४