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तप भी यदि यश-कीर्ति की इच्छा से किया जाता है, तो वह शुद्ध कर्म अकर्म की कोटि में नहीं होगा'।१२३
इस प्रकार शुद्ध कहलाने वाले कर्म भी प्रशस्त रागयुक्त होने से शुद्धोपयोगयुक्त नहीं होते। यही कारण है कि, कर्मक्षय कारक कहलाने वाले शुद्ध कर्म (अकर्म) समान रूप से किये जाने पर भी वे सम्यक्दृष्टि के 'शुद्धपयोगमूलक और मिथ्यादृष्टि के लिए निदान रूप फलकांक्षामूलक होने से पृथक्-पृथक् कोटि के हो जाते हैं।'
ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही कर्मवीरता दिखाते हुए चाहे समानरूप से आचरण करते हुए दिखाई देते हों, परंतु उनकी दृष्टि में सम्यक्त्व असम्यक्त्व का अंतर होने से एक का पुरुषार्थ शुद्ध (कर्म अबंधक) होता है और दूसरे का अशुद्ध कर्म बंधक होता है। ज्ञान और बोध से युक्त व्यक्ति अप्रमत्त होकर कषाय रहित वृत्ति से एक मात्र निर्जरा (कर्मक्षय) या संवर (कर्मनिरोध) की दृष्टि से पराक्रम करता है। अज्ञानी और सम्यक् बोध से रहित, वृत्ति का पराक्रम सकाम-कामनायुक्त होने से निर्जरा और संवर से रहित होता है, इस कारण वह पराक्रम अशुद्ध और कर्मबंधकारक होता है। उसका फल उसे सर्वथा भोगना ही पड़ता है।१२४
इस संबंध में गीता१२५ और जैन दर्शन दोनों एकमत हैं। आचारांगसूत्र१२६ और सूत्रकृतांग१२७ में भी कर्म और अकर्म की अर्थात् बंधक और अबंधक कर्म की भिन्नता स्पष्ट रूप से बताई गई है। कर्म का अर्थ केवल प्रवृत्ति नहीं, अकर्म का अर्थ निवृत्ति नहीं
इस संबंध में गाँधीवादी प्रसिद्ध विचारक स्व. किशोरलाल मश्रुवाला के विचार मननीय हैं- 'शरीर, वाणी और मन की क्रियामात्र कर्म है; यदि कर्म का हम यह अर्थ लेते हैं, तो जब वह देह है तब तक कोई भी मनुष्य कर्म करना बिल्कुल छोड नहीं सकता। जैसे कथा में पढते हैं कि कोई साधक (या संन्यासी) वर्ष भर निर्विकल्प समाधि में निश्चेष्ट होकर पडी रहे, परंतु जिस क्षण उठेगा (समाधि खोलेगा) उस क्षण वह कुछ न कुछ कर्म अवश्य करेगा। इसके अलावा हमारी कल्पना ऐसी है कि, हमारा व्यक्तिगत देह से परे जन्म जन्मांतर पाने वाला जीवरूप है, तब तो देह के बिना भी वह क्रियावान रहेगा। यदि कर्म से निवृत्त हुए बिना कर्मक्षय (अकर्म) न हो सके तो उसका अर्थ यह हुआ कि कर्मक्षय होने की कभी संभावना नहीं है। १२८ भगवान महावीर की दृष्टि से प्रमाद कर्म, अप्रमाद अकर्म
भगवान महावीर की दृष्टि में, कर्म का अर्थ-शरीरादि चेष्टा मात्र नहीं है और न ही अकर्म का अर्थ शरीरादि का अभाव या एकांत निवृत्ति है। 'सूत्रकृतांगसूत्र में भगवान