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261 कर्म और अप्रमाद को 'अकर्म' कहा गया है। प्रमाद में कषाय, विषयासक्ति, विकथा, असावधानी, अयत्ना, मद आदि सभी का समावेश हो जाता है। तीर्थंकरों तथा वीतराग पुरुषों की संघ प्रवर्तन आदि लोक कल्याणकारी प्रवृत्तियाँ भी अकर्म की कोटी में आती हैं।११९ यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप के सम्यक् आचरणअप्रमत्ततापूर्वक रागादि रहित आचरण को मोक्ष (कर्मों से मुक्त होने का) मार्ग कहा गया है।१२०
संक्षेप में सभी क्रियाएँ जो आश्रव एवं बंध का कारण हैं, कर्म हैं और वे समस्त क्रियाएँ जो बहुधा संवर और निर्जरा के कारण हैं वे 'अकर्म' हैं। अबंधक क्रियाएँ रागादि कषाययुक्त होने से बंधकारक
कर्मणा बध्यते जन्तुः। (प्राणी कर्म से बंधा जाता है) महाभारत'२१ (शान्तिपर्व २४०) की यह उक्ति अक्षरश: सत्य नहीं है। उसका कारण यह है कि, सभी कर्म या क्रिया एक सी नहीं होती। बंधन की अपेक्षा से उनमें अंतर होता है। क्रिया एक समान होती हुए भी कोई कर्म बंधकारक नहीं होता, कोई कर्म बंधकारक होता है इसलिए कौनसा कर्म बंधन कारक है, कौन सा नहीं, इसका निर्णय केवल क्रिया के आधार पर नहीं होता।
जैनदर्शन इसका निर्णय कर्ता के भावों, परिणामों तथा उस क्रिया के प्रयोजन-उद्देश्य के आधार पर करता है। मानो कि एक साधक अहिंसा-सत्यादि महाव्रतों का पालन कर रहा है, सेवा (वैयावृत्य) कर रहा है, पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन भी कर रहा है, धार्मिक क्रियाएँ भी कर रहा है, परंतु इन सबके पीछे उसकी दृष्टि एवं वृत्ति सम्यक नहीं है या कषाय रहित नहीं है अथवा आडंबरयुक्त प्रदर्शनकारी क्रियाएँ हैं तो पूर्वोक्त कर्म अबंधक कहलाने वाली साधनात्मक क्रियाएँ भी अकर्म के बदले कर्म में ही परिगणित होंगी। साधनात्मक क्रियाएँ अकर्म के बदले कर्मरूप बनती हैं
___ साधनात्मक क्रियाएँ भी यदि इहलौकिक पद प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति के लिए अथवा महाव्रतादि या रत्नत्रय की साधना भी प्रशस्त रागवश की जायें तो कर्मबंधक हो जायेगी, अर्थात् अकर्म न कहलाकर कर्म कहलायेगी। भले ही वे क्रियाएँ शुभ होने से शुभबंधक हों। दशवैकालिकसूत्र में कर्मक्षय कारक (निर्जरा) व अकर्मरूप तपश्चरण तथा कर्ममुक्ति के लिए पंचविध आचार पाले, परंतु ऐहिक या पारलौकिक कामनापूर्ति के लिए कोई भी क्रिया मत करो।१२२
सूत्रकृतांग में भी बताया गया है कि, 'योग्यरीति से किया हुआ कर्मक्षय का कारणभूत