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________________ 260 साधना या महाव्रतादि आचरण की क्रिया में प्रमाद करते हैं या कषाययुक्त प्रवृत्ति करते हैं, तो उक्त योग एवं प्रमाद से उनको भी सांपरायिक क्रियाएँ लगती हैं।११६ कर्म और अकर्म की परिभाषा . पूर्वोक्त दोनों क्रियाओं के फल में अंतर यह है कि, दोनों क्रियाओं से कर्मों का आस्रव होते हुए भी सांपरायिक क्रिया से होने वाला कर्मास्रव बंधनकारक होता है। वह कषाय सहित क्रियाओं से होने वाला सांपरायिक कर्म कहलाता है। जो आत्मा के स्वभाव को आवृत्त करके उसमें विभाव उत्पन्न करता है, किन्तु जो क्रिया कषायवृत्ति से ऊपर उठे हुए वीतराग दृष्टि संपन्न व्यक्तियों द्वारा होती है, उससे होने वाला कर्म ईर्यापथिक कहलाता है, वह कर्मबंधकारक नहीं होता है। जिस प्रकार रास्ते की धूल के सूखे कण पहले समय में सूखे वस्त्र पर लगते हैं और दूसरे ही क्षण में झड जाते हैं। इसी प्रकार भगवान महावीर स्वामी ने अपनी अंतिम देशना, उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है- 'ज्यो ही चार घातिकर्म क्षय करके साधक सयोगी केवली होता है, त्यों ही प्रथम समय में कर्मबद्ध होता है, द्वितीय समय में उसका वेदन होता है और तृतीय समय में वह निर्जीण होकर झड जाते हैं। तत्काल वह अकर्म हो जाता है। कर्म का सूखा स्पर्श केवल दो समय तक रहता है।११७ . वस्ततुः उक्त दोनों प्रकार की क्रियाओं में जो आस्रव के साथ बंध का कारण है, उससे होने वाले कर्म की स्थिति और अनुभाव बंधपूर्वक उदय में आने पर शुभाशुभ फल प्रदान करने वाला होता है, जब कि जो क्रिया अकषायी वृत्ति द्वारा होती है, उससे होने वाला कर्मप्रकृति और प्रदेशोदयरूप होता है। बंधकारक न होने से ऐसी (ऐर्यापथिकी) क्रिया संवर (कर्मनिरोध) एवं निर्जरा (आंशिक क्षय) का कारण बनती है। रागद्वेषादि युक्त न होने से ऐसा कर्म कर्ता को चिपकता नहीं, वह नाम मात्र का कर्म है। ऐसे कर्म अकर्म की कोटि में आते हैं। तात्पर्य यह है कि, बंधक कर्म को 'कर्म' और अबंधक कर्मों का कर्म होते हुए भी 'अकर्म' कहा गया है। बंधक अबंधक कर्म का आधार बाह्य क्रियाएँ नहीं बंधक कर्म और अबंधक कर्म का आधार बाह्य क्रिया नहीं है, अपितु वह कर्ता के परिणाम/मनोभाव अथवा विवेक-अविवेक पर निर्भर है। यदि कर्ता के परिणाम रागादियुक्त नहीं हैं, शारीरिक क्रियाएँ भी अनिवार्य तथा संयमी जीवन यात्रार्थ अप्रमत्त होकर यत्नाचारपूर्वक की जा रही हैं अथवा शारीरिक क्रियाओं के अतिरिक्त निरपेक्ष भाव से स्व-पर कल्याणार्थ प्रवृत्तियाँ की जा रही हैं या कर्मक्षय (निर्जरा) के हेतु ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की साधना अप्रमत्त भाव से की जाती है, तो उससे होने वाले कर्म राग-द्वेष से रहित होने से बंधकारक नहीं होते, इसलिए अकर्म हैं।११८ इसी दृष्टि से सूत्रकृतांगसूत्र में प्रमाद को
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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