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________________ 259 सांपरायिक क्रियाएँ ही बंधकारक, ऐर्यापथिक नहीं जैनदर्शन प्रत्येक क्रिया को बंधनकारक नहीं मानता, जो क्रिया या प्रवृत्ति (मन, वचन, काया का व्यापार) राग-द्वेष, मोह से युक्त होती है, वही बंधन में डालती है। इसके विपरीत जो क्रिया कषाय एवं आसक्ति (रागादि) से रहित होकर की जाती है, वह बंधकारक नहीं होती है। अत: बंधन की अपेक्षा से क्रियाओं को दो भागों में बाटा गया है- सांपरायिक क्रियाएँ और ईर्यापथिक क्रियाएँ। पच्चीस क्रियाएँ कर्मबंध के कारण हैं। इसलिए सम्यक्दृष्टि जीव को उनसे दूर रहना चाहिए।१०९ जैनेन्द्रसिद्धांतकोश११० और अत्थागम (भगवती सूत्र)१११ में भी यही बात आयी है। क्रिया से कर्म का आगमन अवश्य, सभी कर्म बंधकारक नहीं जब तक शरीर है और शरीर से संबंध वचन और मन है तथा इन्द्रियाँ और अंगोपांग हैं, तब तक कोई न कोई क्रिया या प्रवृत्ति होना अनिवार्य है और यह भी सत्य है कि, क्रियाओं से कर्म आते हैं, परंतु वे सभी कर्म बंधन में डालते हैं ऐसा नहीं होता।११२ क्रियाएँ कर्म, उपयोगे धर्म, परिणामे बंध' । क्रिया से कर्म आते हैं, उपयोग (शुद्धोपयोग) से धर्म होता है और कर्मबंध परिणामों (रागादि शुभाशुभ भावों) पर आधारित है।११३ __ जैनदर्शन यह स्वीकार करता है, जब तक जीवन है, तब तक शरीर से सर्वथा निष्क्रिय (योगजनित व्यापार से) नहीं रहा जा सकता। सर्वथा अक्रिय अवस्था चौदहवें गुणस्थान में होती है। प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक कोई न कोई क्रिया अवश्य रहती है। ___ मानसिकवृत्ति के साथ ही शारीरिक एवं वाचिक क्रियाएँ भी चलती हैं और क्रिया के फलस्वरूप कर्मों का आगमन (आस्रव) भी होता है। किन्तु रागादियुक्त प्राणियों (जीवों) की क्रियाओं द्वारा होने वाले कर्मास्त्रव और कषायवृत्ति रहित वीतराग दृष्टि संपन्न व्यक्तियों की क्रियाओं के द्वारा होनेवाले कर्मास्रव में बहुत ही अंतर है। कषाययुक्त प्राणियों की प्रत्येक क्रिया सांपरायिकी होती है, जब कि कषायरहित व्यक्तियों की प्रत्येक क्रिया ऐर्यापथिक होती है।११४ इसी तथ्य को व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में व्यक्त किया गया है कि 'सांपरायिकी क्रिया सकषायी और उत्सूत्री (सिद्धांत विरुद्ध प्ररूपणा/आचरण) करने वाले को लगती है, जब कि ईर्यापथिकी क्रिया अकषायी ससूत्री (सूत्रानुसार प्ररूपणा/आचरण करने वाले) साधकों को लगती है।११५ तथा यह भी कहा है कि- महाव्रती श्रमण निग्रंथ भी यदि ज्ञानदर्शनादि
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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