SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देहधारी प्राणी जब तक आठों ही कर्मों से सर्वथा मुक्त नहीं हो जाते, तब तक वे सर्वथा कर्म रहित नहीं होते। अकर्म भी तब तक नहीं हो पाते जब तक वे रागद्वेष रहित या कषायों से विरत होकर कर्म नहीं करते । अभिप्राय यह है कि, जब तक जीव आत्मशुद्धि के उद्देश्य से, एक मात्र कर्मक्षय करने की दृष्टि से, सहज भाव से कर्म नहीं करता, तब तक एक या दूसरे प्रकार से शुभ या अशुभ रूप में विविध कर्मों से प्रभावित होता रहेगा। वह बाहर से कर्म न करता हुआ भी मानसिक रूप से कर्म करता रहेगा । क्या सभी क्रियाएँ कर्म है ? 258 क्या सभी क्रियाएँ कर्म कहलाती हैं ? यदि सभी क्रियाएँ कर्म कहलाती हैं। तब तो . कोई भी मनुष्य यहाँ तक कि तीर्थंकर भी, सर्वज्ञ केवली भी कर्मबंध से बच नहीं सकते और न ही कर्म परंपरा से मुक्त हो सकते हैं फिर से कर्म से रहित अवस्था तो एक मात्र सिद्ध मुक् परमात्मा की ही माननी पडेगी । संसारस्थ आत्मा, चाहे उच्चकोटि का अप्रमत्त साधक हो या वीतराग अर्हत-परमात्मा हो, सभी शरीरगत अनिवार्य क्रियाओं से नहीं बच सकने के कारण किसी न किसी रूप में कर्म के लपेटे में आते रहेंगे। पच्चीस क्रियाएँ : स्वरूप और विशेषता जैन दर्शन में मुख्यतया पच्चीस क्रियाएँ प्रसिद्ध हैं। उनमें से २४ क्रियाएँ सांपरायिक हैं और पच्चीसवीं क्रिया ऐर्यापथिक है । १०६ नवतत्त्व १०७ में भी यही बात कही है। चौबीस क्रियाएँ इस प्रकार हैं: १) कायिकी, ४) पारितानिकी, ७) पारिग्रहिकी, १०) द्वेष, १३) दृष्टिजा, १६) सामन्तोपनिपातिका, १९) आज्ञापनिका, २२) अनाकांक्षा, २) आधिकरणिकी, ५) प्राणातिपातिकी, ८) माया, ११) अप्रत्याख्यान, १४) स्पर्श, १७) स्वहस्तिकी, २०) वैदारिणी, २३) प्रायोगिकी, · ३) प्राद्वेषिकी, ६) आरंभक्रिया, ९) राग, १२) मिथ्यादर्शन, १५) प्रातीत्यिकी, १८) नैसृष्टिकी, २१) अनाभोग, २४) सामुदायिकी । ये सभी क्रियाएँ रागद्वेषादि युक्त होने से सांपरायिकी कहलाती हैं । १०८ पच्चीसवीं - ऐर्यापथिकी क्रिया है, जो विवेक (यत्नाचार परायण) एवं अप्रमत्तसंयमी व्यक्ति की गमनागमन तथा आहार विहारादि चर्यारूप होती है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy