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________________ 257 को देखकर उसके परमाणु को मूर्त माना जाता है, उसी प्रकार कर्म के कार्य औदारिक आदि शरीर को मूर्तिक देखकर उनका कारणभूत कर्म भी मूर्तिक सिद्ध हो जाता है। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो अमूर्त पदार्थों से मूर्त पदार्थों की उत्पत्ति माननी होगी, जो सिद्धांत विरुद्ध है, क्योंकि अमूर्त कारणों से मूर्त कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती।९७ विशेषावश्यकभाष्य९८ में भी यही कहा गया है। आप्त वचन से कर्म मूर्त रूप सिद्ध होता है आगमों और कर्मग्रंथों९९ आदि से भी कर्म मूर्त सिद्ध होता है। समयसार१०० में कहा गया है- 'आठों प्रकार के कर्म पुद्गल स्वरूप हैं, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।' नियमसार में भी कहा गया है - 'आत्मा पुद्गलकर्मों का कर्ता भोक्ता है, यह सिर्फ व्यवहार दृष्टि है।' पुद्गल मूर्तिक हैं, इसलिए कर्म भी मूर्तिक सिद्ध होते हैं।१०१ जैन दर्शन में कर्म न तो अमूर्त आत्मगुण रूप है और न तो आत्मा के समान अमूर्त है। अपितु वह मूर्त रूप है, पौद्गलिक है, भौतिक है। कर्मों के रूप कर्म, विकर्म और अकर्म वैदिक धर्म परंपरा के मूर्धन्य ग्रंथ भगवद्गीता में कहा है- 'कर्मों का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी जीव किसी काल में क्षणभर भी कर्म को किये बिना रह नहीं सकता। नि:संदेह संसारी आत्मा परवश होकर कर्म करते हैं।१०२ अत: कोई भी पुरुष (जीवात्मा) कर्मों के न करने मात्र से' निष्कर्मता को प्राप्त नहीं हो जाता और न ही (बिना शुभ उद्देश) कर्मों को त्यागने मात्र से सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त होता है।१०३ भगवद्गीता के अनुसार 'कोई व्यक्ति कर्मेन्द्रिय को रोककर, मन से उन-उन कर्मों (क्रियाओं) का चिंतन, मनन, स्मरण करता रहता है अथवा इंद्रियों के विभिन्न विषयों को प्राप्त करने, भोगने और सुख पाने की मन ही मन कामना करता रहता है। वह मिथ्याचारी (दम्भी) है।' इन्द्रियों को निश्चेष्ट कर देने मात्र से किसी सांसारिक प्राणी का कर्म करना बंद नहीं हो जाता।१०४ ऐसी निश्चेष्टता की स्थिति में भी वह मन से तो विचार करता रहता है। वह भी एक प्रकार का कर्म है। अत: कोई भी प्राणी बाहर से भले कर्म करता न दिखाई दे, परंतु चेतनाशील होने के कारण अंतरमन से तो कर्म करता ही रहता है। स्थूल रूप से कर्म न करने मात्र से कोई भी प्राणी 'अकर्म' या 'निष्कर्म' नहीं हो जाता। जैन दर्शन के विद्वान पं. सुखलालजी ने प्रथम कर्मग्रंथ की भूमिका में लिखा है 'साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि कुछ काम नहीं करने से अपने को पुण्य पाप का लेप नहीं लगेगा। इससे वे काम को छोड देते हैं; पर बहुधा उनकी मानसिक क्रियाएँ नहीं छूटतीं। इससे वे इच्छा रहने पर भी पुण्यपाप के लेप (बंध) से अपने को मुक्त नहीं कर सकते ।१०५
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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