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भगवद्गीता में इसी सिद्धांत की प्ररूपणा की गई है। कहा गया है- 'तेरा कर्म करने में अधिकार है, अर्थात् कार्य (कर्म) करने में तू स्वतंत्र है, किन्तु उसके फल में तेरा अधिकार कदापि नहीं है, अर्थात् उसका फल भोगने में तू परतंत्र है । ४९
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अतः सिद्धांत यह हुआ कि जीव अपने कर्तृत्व में स्वतंत्र है किन्तु फल भोगने में परतंत्र है। अर्थात्- कर्तृत्व काल में वह स्वतंत्र है, किन्तु परिणामकाल में परतंत्र है । निष्कर्ष यह है कि एक बार कर्म करने के पश्चात् जो भी परिणाम बंधन आ पडे, वह जीवात्मा को स्वीकारना ही पडता है। कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है, इसका अभिप्राय यह है कि कर्म करना, न करना, कैसे करना, कौनसा कर्म न करना? इत्यादि विचारपूर्वक शुद्ध बुद्धि का उपयोग करके कर्म में प्रवृत्त होने में मनुष्य स्वतंत्र है, परंतु उसका फल भोगने में वह परतंत्र है। उसकी इच्छा, फल भोगने की न हो तो भी उसे वह फल अनिष्छा से भी भोगना पडेगा । ५०
कर्मकर्ता की जितनी स्वतंत्रता कर्म करने की है उतनी ही जिम्मेबारी उस कर्म के परिणाम भोगने की होती है। कहावत है कि Freedom implies Responsibility जितनी स्वतंत्रता उतनी ही जिम्मेदारी ५१ इसका यथार्थज्ञान कर्मकर्ता को रखना आवश्यक है। कुछ भी करने के बाद फिर मनुष्य चाहे कि उसका फल न भोगना पडे, यह असंभव है।
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निष्कर्ष यह है कि रागादि परिणामयुक्त कर्म बंधकारक परतंत्रकारक है। ईर्यापथिक कर्म रागादि परिणामों से रहित शुद्ध निष्काम कर्म बंध रहित होने से वे मनुष्य को परतंत्र नहीं बना सकते।
कर्मराज का सर्वत्र सार्वभौम राज्य
कर्म संसारस्थ प्रत्येक प्राणी के साथ लगा हुआ है। संसार की कोई भी गति, योनि, जन्म स्थान ऐसा नहीं बचा, जहाँ कर्म का सार्वभौम राज्य न हो । संसार में सर्वत्र अबाधगति से इसका प्रवेश और प्रभाव है। पंचतंत्र ५२ में भी कहा गया है- 'मनुष्यों का पूर्वकृत आत्मा के साथ-साथ रहता है।' उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा है- 'कर्म कर्ता के साथ-साथ अनुगमन करता है । '५३
कर्मरूपी विधाता का विधान अटल है
विश्व के इस विधाता का विधान अटल है। मानव, दानव, देव, देवेन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरपाल आदि यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीर्थंकर, पैगम्बर, ऋषि, महर्षि, अवतार आदि कोई भी इसके दंड से बचे नहीं हैं, और न ही सकते हैं। सभी एक या दूसरे रूप में इसके पाश में जकड़े हुए हैं।