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________________ 246 प्रत्येक आत्मा स्वयंभू शक्ति संपन्न है पंचास्तिकाय में आत्मा की स्वतंत्रता और परतंत्रता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि, समस्त आत्माएँ स्वयंभू हैं। वे किसी के वशीभूत (परतंत्र) नहीं हैं। प्रत्येक आत्मा अपने शरीर का स्वयं स्वामी है। 'वीतरागदेव के द्वारा बतलाये गये मार्ग पर चलकर जीव समस्त कर्मों को उपशांत तथा क्षीण करके विपरीत अभिप्राय को नष्ट करके प्रभुत्व शक्तिसंपन्न होकर परमविशुद्ध स्वरूप मोक्षमार्ग को प्राप्त करता है।४५ पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति टीका में भी यही बात है।४६ आत्मा की इच्छा बिना कर्म परवश नहीं होते आत्मा की इच्छा (संकल्पशक्ति) के बिना कर्म आदि कोई भी सत्ता उसे न तो अपने आधीन कर सकती, न ही उसके स्वभावों पर हावी होकर आत्मगुणों को आच्छादित विकृत कर सकती है। समग्र जगत के जीवों की कर्म परतंत्रता जानकर भी आत्मा चाहे तो अप्रमत्त एवं समभाव में रहकर स्वतंत्र रह सकती है।४७ यह सत्य है कि, आत्मा उन इच्छाओं या वासनाओं को सम्यग्दृष्टिपूर्वक रोक सकती है। आत्मा की स्वाभाविक गति, मति, अग्निशिखा की भाँति ऊर्ध्वगामिनी है, परंतु स्वभाव के विरुद्ध इच्छाएँ या विकल्प उठते हैं, तब उसकी गति मति अधोगामिनी हो जाती है। कर्म पुद्गल उसे जकड लेते हैं। उसकी स्वतंत्र विकास की ऊर्ध्वगति को रोक देते हैं। आत्मविस्मृति या जैनपारिभाषिक शब्दानुसार प्रमाद के कारण जब आत्मा बाहर भटक जाती है, तब वह भावकर्म-द्रव्यकर्म के वशीभूत हो जाती है। कर्मों पर शासन करने के बदले कर्म उस पर शासन करने लग जाते हैं। समयसार कलश में कहा गया है, जहाँ तक जीव की निर्बलता है, वहाँ तक कर्म का जोर चलता है। आत्मा का स्वभाव स्वतंत्र आत्मा अपने मूल स्वरूप को अप्रमत्त होकर जानले, मानले तो उसकी चेतना शक्ति अतिप्रबल हो जाती है। अत: यदि वह प्रबलरूप से जागृत हो जाए और दृढ संकल्पपूर्वक ज्ञानबद्ध हो जाए कि, मुझे यह कार्य कतई नहीं करना है, तो फिर संस्कार या कर्म कितने ही प्रबल क्यों न हो एक झटके में वह उन्हें तोड सकता है। स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों सापेक्ष हैं, सर्वथा निरपेक्ष नहीं। जैसे एक व्यक्ति भाँग पी लेता है। वह भाँग पीने में स्वतंत्र है। इच्छा हो तो पिए, इच्छा न हो तो न पिए, किन्तु परिणाम स्वरूप नशा चढा, उसका फल तो उसे भोगना ही पडेगा। उसकी इच्छा न होते हुए भी भाँग अपना चमत्कार दिखाएगी ही।४८ अत: भाँग पीने में व्यक्ति स्वतंत्र है, परंतु उसका परिणाम भोगने में परतंत्र है। .
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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