SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 245 की शक्ति को कुंठित करता है और अंतराय कर्म आत्मा की दानादि शक्तियों को अवरुद्ध करता है। मिथ्यात्वी आत्मा में तप त्याग की भावना क्यों ? और कैसे ? आठ प्रकार के कर्मों में से कोई भी कर्म आत्मा को तप, त्याग एवं संयम की ओर जो समर्थ नहीं है, तथापि कर्मों के कारण मिथ्यात्व, असंयम, (अत्याग, भोग) प्रमाद एवं कषाय में आकंठ डूबा हुआ जीव तप, त्याग, संयम, नियम की साधना के लिए क्यों प्रेरित होता है ? उसके अंतकरण में तप, त्याग एवं संयम की भावना क्यों जागती है ? - इसका कारण कर्म नहीं, आत्मा ही है; आत्मा का स्वभाव ही स्वयमेव कारण है। आत्मा में विशुद्ध चैतन्यशक्ति ऐसी है जो इन विजातीय तत्त्व बाह्य पदार्थों से सतत् संघर्ष करती है। वही चैतन्यशक्ति जीव को परम विशुद्ध परमात्म अवस्था तक ले जाना चाहती है। वह आत्मा के सहज सच्चिदानंद स्वरूप की अवस्था है। प्रत्येक आत्मा में वह चैतन्य की अन्तर्ज्योति सतत् जलती रहती है, वह कभी बुझती नहीं । उसी का प्रकाश जीव को तप, त्याग एवं संयम आदि की ओर ले जाता है । तप, त्याग एवं संयम, संवर आदि किसी कर्म प्रेरणा से नहीं होता, ये होते हैं सचेतन आत्मा की प्रेरणा से । ४३ कर्म अचेतन है और उससे प्रेरित व्यक्ति संयम भोग आदि से आसक्त हो जाता है। कर्म प्रेरणा से जीव असंयम भोग आदि से परतंत्र हो जाता है। इसके बावजूद भी आत्मा में अंतर्निहित शुद्ध चैतन्य की ज्योति त्याग परमार्थ एवं संयम की ओर ले जाती है। इसका कारण कर्म नहीं, आत्मा है। आत्मा में स्वबोध की स्वरूप चेतना, आनंद और आत्म शक्ति सहज प्रेरणा होती है। वही उसे तप, त्याग, परमार्थ एवं संयम की ओर ले जाती है । यदि जीव में यह सहज प्रेरणा न होती तो, वह त्याग, संयम एवं परमार्थ की बात कभी नहीं सोच पाता न ही उस मार्ग की ओर कदम रखता । अनादिकालीन संस्कारों के कारण जीव की इन्द्रियाँ विशेष भोग, असंयम स्वार्थ एवं सुखशांति प्रिय होती है, फिर भी इन्हें त्याग, संयम और संवर करने की भावना जागती है। इसका कारण आत्मा का वह सहज ज्ञानादि स्वभाव है। इस प्रेरणा का मूल स्रोत आत्मा है। उसमें चैतन्य की एक शुद्ध धारा सतत बहती रह है। वह एक क्षण भी रुकती नहीं, सर्वथा लुप्त भी नहीं होती । चैतन्य धारा सर्वथा लुप्त या अवरुद्ध हो जाए तो आत्मा चेतन से अचेतन बन जाएगी, परंतु ऐसा होना असंभव है । जीव स्वतंत्र भी है और परतंत्र भी । जहाँ चेतना का प्रश्न है, वहाँ वह स्वतंत्र है और जहाँ कर्म का प्रश्न है, वहाँ परतंत्र है । जहाँ जीव चेतना के साथ यानी ज्ञानादि स्वभाव के साथ होता है, वहाँ पूणॅ स्वतंत्र होता है, किन्तु जहाँ परभाव - कर्मविभाव, कषायादि के साथ होता है, वहाँ परतंत्र होती है । वहाँ उसकी स्वतंत्रता आवृत्त हो जाती है । ४४
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy