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________________ 244 घड़ा बनने की योग्यता है। कुंभकार आदि दूसरे साधन, सहायक या निमित्त बन सकते हैं, उपादान नहीं। घड़े के रूप में परिवर्तित होने वाली मिट्टी ही घड़े का उपादान हो सकती है, अन्य साधन नहीं। इसी प्रकार आत्मा के ज्ञानादि पर्यायों के विकास के लिए आत्मा ही घटक है। चैतन्य ज्ञान, दर्शन, आनंद और शक्ति ये आत्मस्वभाव ही उसके (आत्मा के) उपादान हैं। आत्मा में वह शक्ति है, उसका स्वभाव है कि वह ज्ञानादि पर्यायों को उत्पन्न कर सकती है अथवा उनका विकास कर सकती है।४० कर्म में वह शक्ति नहीं है कि, वह आत्मा में ज्ञान, दर्शन, आनंद और शक्ति तथा चैतन्य के पर्यायों को उत्पन्न कर सके तथा ज्ञानादि का विकास कर सकें, क्योंकि ये सब कर्म के स्वभाव नहीं है, आत्मा के स्वभाव हैं। इस दृष्टि से आत्मा में ही अपने ज्ञानादि स्वभाव के पर्यायों को उत्पन्न करने तथा विकसित करने का स्वतंत्र अबाधित कर्तृत्व है। जैन कर्म विज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति कदाचित-यह कहे कि, कर्मों के कारण शरीर तथा शरीर से संबंधित अंगोपांग आदि अच्छे मिलते हैं। यश मिलता है, मनोज्ञ पदार्थ मिलते हैं, इष्ट वस्तुओं का संयोग प्राप्त होता है। क्या यह आत्मा के विकास का परिणाम है? इसका समाधान यह है कि, यह सब आत्मा का विकास नहीं है। ये सब कर्मोपाधिक वस्तुएँ हैं। पौद्गलिक विकास है। जो शुभ नाम कर्म के द्वारा घटित होता है। नामकर्म या कोई भी कर्म आत्मा के ज्ञानादि स्वभाव के विकास में सहायक नहीं, अवरोधक है, क्योंकि ज्ञानादि गुण आत्मा के स्वभाव हैं, कर्मों का स्वभाव नहीं है। आत्मा ही अपने ज्ञानादि स्वभाव का विकास करता है।४१ दूसरी दृष्टि से देखें तो प्रतीत होगा कि, कर्म सांसारिक जीव के साथ जुडा हुआ एक माध्यम है जो प्रत्येक जीव को प्रभावित करता है परंतु वही सब कुछ नहीं है। यदि कर्म सबकुछ होता या सर्व शक्तिमान होता तो व्यक्ति कर्म को काटने के लिए तप, संयम एवं त्याग की आराधना क्यों करता ? कर्म का स्वभाव नहीं है कि, वह प्राणी को तप, त्याग, संयम की ओर ले जा सके। कर्मों का स्वभाव है, व्यक्ति को असंयम, प्रमाद, भोग की ओर ले जाना। चार प्रकार के अघाति कर्म माने जाते हैं- वेदनीय कर्म, आयुष्यकर्म, नामकर्म और गोत्रकर्म। ये चारों ही आत्मा (जीव) का पौद्गलिक विकास कराने वाले, उसे असंयम, प्रमाद, मिथ्यात्व, कषाय एवं भोग की ओर ले जाने वाले हैं। आत्मिक विकास इनसे नहीं हो सकता।४२ आत्मिक विकास होता है- तप, त्याग, संयम और अप्रमाद से। शेष चार घातिकर्म- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय। ये आत्मा की ज्ञान और दर्शन शक्ति को आवृत करते हैं। मोहनीय कर्म आत्मा की दृष्टि और चारित्र
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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