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________________ 236 पंचम प्रकरण कर्मों की प्रक्रिया कर्म पुद्गल जीवको परतंत्र बनाते हैं - जैन दर्शन में जीवन और जगत के संचालन के संबंध में छह द्रव्य माने जाते हैं। वे इस प्रकार हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय। तत्त्वार्थ सूत्र और समयसार में भी इन छः द्रव्यों का वर्णन आता है। इन सभी द्रव्यों का अपना-अपना पृथक्-पृथक् स्वभाव है। इनका अपना स्वभाव कभी निर्मूल नहीं होता। विभाव ही स्वभाव को विकृत और आवृत करता है। उसे स्वभाव के प्रगटीकरण में बाधक बनता है। किन्तु वह किसी द्रव्य के स्वभाव को निरस्त नहीं कर सकता, न ही सर्वथा लुप्त या विनष्ट करता है। पूर्वोक्त छह द्रव्यों में से धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो आत्मा से स्वभावत: अलिप्त और तटस्थ हैं। ये जीव की गति, स्थिति, अवकाश और समयादि व्यवहार में सहायक निमित्त बनते हैं, किन्तु जीव को बाँधने और परतंत्र बनाने का इनका स्वभाव या सामर्थ्य नहीं है। इसके विपरीत ऐसा भी कहा जा सकता है कि जीव और पुद्गल दोनों में चैतन्यशील ज्ञानवान जीव ही है, पुद्गल तो जड़ और ज्ञानशून्य है, इसलिए जीव (आत्मा) जब अपने स्वभाव को भूलकर परभाव या विभाव में रमण करता है, उसे ही अपना स्वभाव समझता है और मन, वचन, काया में प्रवृत्त होता है, तब कर्म पुद्गल पर हावी हो जाते हैं और उसके आत्म प्रदेशों के साथ चिपक जाते हैं और जीव को परतंत्र एवं विकृत कर देते हैं। जीव को परतंत्र बनानेवाला शत्रु : कर्म पद्मनंदि ने पंचविंशतिका में कहा है- 'धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य मेरा अहित नहीं करते। ये चारों गमनादि कार्यों में मेरी सहायता करते हैं। एक पुद्गल द्रव्य ही कर्म और नोकर्म रूप होकर मेरे समीप रहते हैं। यह बाँधने में, जकड़ने और परतंत्र बनाने वाला मेरा शत्रु है। अत: मैं अब उस कर्मरूपी शत्रु को भेद-विज्ञानरूपी तलवार से विनष्ट करता हूँ' ।३ समयसार में कहा है- जीव के लिए कर्म संयोग ऐसा है जैसा स्फटिक के लिए तमालपत्र।४ कर्म विजेता : तीर्थंकर अरिहंतों, तीर्थंकरों के लिए आगमों तथा उनकी व्याख्याओं एवं ग्रंथों में यत्र-तत्र कर्मरूपी अरि-शत्रुओं को नष्ट करने वाली, कर्म शत्रु का ध्वंस करने वाले कहा गया है।५
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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