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________________ 237 वस्तुत: कर्मों को ‘बंधविहाणे' (बंधविज्ञान) में आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद एवं शक्तिरूपी धन को लुटनेवाले लूटेरे कहा है।६ कर्म बंध का व्युत्पति लभ्य अर्थ कर्मबंध का व्यत्पत्तिमूलक अर्थ करते हुए 'बंधविहाण' में कहा गया है- 'जो बाँध देता है अर्थात् परतंत्रता में डाल देता है, वह (कर्म) बंध है'।७ . 'कर्म' का अर्थ बताते हुए आप्त परीक्षा में इस प्रकार कहा है कि, जो जीव को परतंत्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतंत्र किये जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं। कर्मविज्ञान मर्मज्ञों ने कर्माधीन अथवा कर्म विपाक परवशता को भलीभाँति जान लिया। इसलिए वे कहते हैं- 'दुःख तो तीर्थंकरों, ज्ञानीपुरुषों और निग्रंथ मुनियों पर भी आते हैं; परंतु वे यह जानते हैं कि सारा संसार कर्म विपाक के आधीन है, न तो दुःख पाकर दीन बनते हैं और न ही सुख को पाकर विस्मित होते हैं'। हीन स्थान क्या है? इस पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि, 'संसारी जीव का शरीर ही हीन स्थान है। क्योंकि यह शरीर ही दुःख (कर्मोत्पत्ति) का कारण है। जैसे कारागार दुःख प्रद होने के कारण हीनस्थान माना जाता है, उसी प्रकार कर्मों के कारण प्राप्त यह शरीर भी हीन स्थान है।९ महाबंधों में भी यह दर्शाया है।१० आत्मा शरीर संबंध से पुनः पुन: कर्माधीन शरीर से संबद्ध सजीव निर्जीव पर पदार्थों के प्रति रागद्वेषाविष्ट या कषायाविष्ट होता है। अत: पुन: पुन: कर्मबंधन से बद्ध होकर परतंत्र बनता है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि, कर्मों के द्वारा जीव बार-बार परतंत्र और विवश कर दिया जाता है।११ तत्त्वार्थ राजवार्तिक में बताया गया है कि, वह (कर्म) आत्मा को परतंत्र करने में मूल कारण है।१२ आप्त परीक्षा में भी कहा गया है कि, कर्म जीव को परतंत्र करने वाले हैं।१३ निष्कर्ष यह है कि, जीव की कर्म परतंत्रता का आदि बिंदु शरीर है। आत्मा के साथ शरीर का संयोग होने से ही कर्म आत्मा को प्रभावित कर लेते हैं। जहाँ शरीर है, वहाँ वीतराग न होने तक राग-द्वेष के परिणाम आत्मा के साथ जुडा रहता है। राग-द्वेष की धारा सतत प्रवाहित होती रहने से आत्मा में कर्मयोग्य पुद्गल आकर्षित होते हैं, कर्म परमाणु जुड़ते हैं। आत्मा के साथ शरीर है वहाँ तक मानव एक या दूसरे प्रकार से प्रभावित और परतंत्र रहता है। यह पौद्गलिक शरीर ही संसारस्थ प्राणी की परतंत्रता का द्योतक है। इस परतंत्रता का मूल कारण कर्म है। अत: जब तक शरीर है, तब तक आत्मा स्वतंत्र नहीं, कर्म परतंत्र रहता है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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