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________________ 235 २५६ गणधरवाद में कर्म की मूर्तत्व सिद्धि २५६ जैन दार्शनिक ग्रंथों में कर्म की मूर्तता सिद्धि आप्त वचन से कर्म मूर्त रूप सिद्ध होता है २५७ कर्मों के रूप कर्म, विकर्म और अकर्म २५७ क्या सभी क्रियाएँ कर्म है ? २५८ पच्चीस क्रियाएँ : स्वरूप और विशेषता २५८ सांपरायिक क्रियाएँ ही बंधकारक, ऐर्यापथिक नहीं २५९ क्रिया से कर्म का आगमन अवश्य, सभी कर्म बंधकारक नहीं २५९ कर्म और अकर्म की परिभाषा २६० बंधक, अबंधक कर्म का आधार बाह्य क्रियाएँ नहीं २६० अबंधक क्रियाएँ रागादि कषाययुक्त होने से बंधकारक २६१ साधनात्मक क्रियाएँ अकर्म के बदले कर्मरूप बनती हैं २६१ कर्म का अर्थ केवल प्रवृत्ति नहीं, अकर्म का अर्थ निवृत्ति नहीं २६२ भगवान महावीर की दृष्टि से प्रमाद कर्म, अप्रमाद अकर्म २६२ सकषायी जीव हिंसादि में अप्रमत्त होने पर भी पाप का भागी २६३ कर्म और विकर्म में अंतर २६४ भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म का स्वरूप २६५ बौद्ध दर्शन में कर्म, विकर्म और अकर्म विचार २६६ कौन से कर्मबंध कारक, कौन से अबंधकारक ? तीनों धाराओं में कर्म, विकर्म और अकर्म में समानता कर्म का शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप २६७ शुभ कर्म : स्वरूप और विश्लेषण २६८ अशुभ कर्म : स्वरूप और विश्लेषण २६८ शुभत्व और अशुभत्व के निर्णय का आधार बौद्ध दर्शन में शुभाशुभत्व का आधार २६९ वैदिक धर्मग्रंथों में शुभत्व का आधार : आत्मवत् दृष्टि २७० जैन दृष्टि से कर्म के एकांत शुभत्व का आधार : आत्मतुल्य दृष्टि २७१ शुद्ध कर्म की व्याख्या २७१ शुभ अशुभ दोनों को क्षय करने का क्रम २७२' अशुभ कर्म से बचने पर शेष शुभ कर्म प्राय: शुद्ध बनते हैं २७२ संदर्भ-सूची २७४ २६६ २६६
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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