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________________ 234 २३६ २३६ २३६ २३७ २३७ २३८ २३८ २३८ २४१ २४५ २४६ २४६ २४६ पंचम प्रकरण कर्मों की प्रक्रिया कर्म पुद्गल जीव को परतंत्र बनाते हैं जीव को परतंत्र बनानेवाला शत्रु : कर्म कर्म विजेता : तीर्थंकर कर्म बंध का व्युत्पति लभ्य अर्थ आत्मा शरीर संबंध से पुन: पुन: कर्माधीन जीव कब स्वतंत्र और परतंत्र कर्म जीव को क्यों परतंत्र बनाता है ? कर्मों द्वारा जीवों का परतंत्रीकरण सुख-दुःख जीव के कर्माधीन मिथ्यात्वी आत्मा में तप त्याग की भावना कैसे? प्रत्येक आत्मा स्वयंभू शक्ति संपन्न है आत्मा की इच्छा बिना कर्म परवश नहीं होते आत्मा का स्वभाव स्वतंत्र कर्मराज का सर्वत्र सार्वभौम राज्य कर्मरूपी विधाता का विधान अटल है कर्म : शक्तिशाली अनुशास्ता मुक्ति न हो तब तक कर्म छाया की तरह कर्म का नियम अटल है कर्मों के नियम में कोई अपवाद नहीं जड़ कर्म पुद्गल में भी असीम शक्ति कर्म शक्ति से प्रभावित जीवन कर्म और आत्मा दोनों में प्रबल शक्तिमान कौन ? कर्म शक्ति को परास्त किया जा सकता है आत्म शक्ति, कर्म शक्ति से अधिक कैसे? कर्म मूर्तरूप या अमूर्त आत्मा गुणरूप कर्म को मूर्त रूप न मानने का क्या कारण ? गणधरवाद में कर्म मूर्त है या अमूर्त मूर्त का लक्षण और उपादान षड्द्रव्यों में पुद्गलास्तिकाय ही मूर्त है २४७ २४७ २४८ २४९ २४९ २४९ २५० २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५४ २५४ २५५ २५६
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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