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अंतराय कर्म की स्थिति . जघन्य- अंतर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट- तीस कोडाकोडी सागरोपम की, अबाधाकाल - तीन हजार वर्ष का१९६
इस प्रकार कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ एवं उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप, स्वभाव, प्रभाव एवं बंध के कारणों को समझकर उनसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए। कर्मबंध की परिवर्तनीय अवस्था के १० कारण
जैन कर्मशास्त्र१९७ में कर्म की विविध अवस्थाओं का वर्णन मिलता है। ये अवस्थाएँ कर्म के बंधन, परिवर्तन, सत्ता, उदय, क्षय आदि से संबंधित हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं
१) बंध, २) उद्वर्तना, ३) अपवर्तना, ४) सत्ता, ५) उदय,
६) उदीरणा, ७) संक्रमण, ८) उपशम, ९) निधत्ति, १०) निकाचना१९८ गोम्मटसार में इनको दश करण की संज्ञा दी गई है। जीवों के शुभ-अशुभ आदि परिणामों की करण संज्ञा है। १९९ धवला में भी यही कहा है।२०० ये अवस्थाएँ जैनों के कर्म सिद्धांतों के विकास की सूचक हैं।२०१ बंध ___ अनेक पदार्थों का एक हो जाना बंध कहलाता है।२०२ राजवार्तिक में कहा है जिनसे कर्म बंधे वह कर्मों का बंधना बंध है।२०३ जो बंधे या जिसके द्वारा बाँधा जाये उसे बंध कहते हैं।२०४ जैन कर्म सिद्धांत, अध्यात्म और विज्ञान२०५ में डॉ. नारायण लाल ने कहा है कर्मबंध केवल मनुष्य और तिर्यंच योनि में ही होता है। जो कर्म योनि है। द्वेष व नारकी भोग योनि है। - उमास्वाति ने कहा है- कषाय भाव के कारण जीव का कर्म पुद्गल से आक्रान्त हो जाना ही बंध है।२०६ 'आत्मा जिस शक्ति वीर्य विशेष से कर्म परमाणुओं को आकर्षित करके उन्हें आठ प्रकार के कर्मों के रूप में जीव प्रदेशों से संबंधित करता है तथा कर्म परमाणु और आत्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं वह बंध है।'
जीव और कर्म के संश्लेष को बंध कहते हैं।२०७ जीव अपनी वृत्तियों से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गल और जीव-प्रदेशों का बंधन या संयोग बंध है। आचार्य अभयदेवसूरि के अनुसार - ‘बेडी का बंधन द्रव्य बंध है और कर्म का बंधन भाव बंध है '।२०८
श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने कहा है 'जिस चैतन्य परिणाम से कर्म बंधता है वह भावबंध है तथा कर्म और आत्मा के प्रदेशों का एक दूसरे में मिल जाना, एक क्षेत्रावगाही हो जाना द्रव्यबंध है'।२०९