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२) पण्डित वीर्यान्तराय कर्म
मोक्ष की इच्छा होते हुए भी, त्याग वैराग्य की दृढता होते हुए भी, साधु-साध्वी इस कर्म के उदय से मोक्ष प्राप्ति के योग्य पुरुषार्थ नहीं कर पाते। ३) बालपण्डित वीर्यान्तराय कर्म
सम्यक्दृष्टि श्रावक, श्राविका देशविरती चारित्र में पुरुषार्थ करना चाहते हुए भी इस कर्म के उदय से नहीं कर पाते, वह बाल पण्डित वीर्यान्तराय कर्म है। १८९ अंतराय कर्म बंध के ५ कारण
भगवतीसूत्र ९० और तत्त्वार्थसूत्र ९१ में अंतराय कर्म बंध के पाँच कारण बताये हैं। १) दाने देने में रुकावट डालना, २) लाभ में अंतराय डालना, ३) भोग्य पदार्थ की प्राप्ति में विघ्न डालना, ४) उपभोग्य पदार्थों की प्राप्ति में विघ्न डालना,
५) शक्ति को कुंठित कर देना। अंतराय कर्म बंध ५ प्रकार से भोगे
१) दान का अवसर हाथ न आना, २) लाभ का अवसर न मिलना, ३) भोग्य पदार्थ का सेवन न कर पाना, ४) उपभोग्य सामग्री का न मिलना,
५) शक्ति प्राप्त न होना। अंतराय कर्म का प्रभाव
अंतराय कर्म के कारण उपलब्ध सामग्री एवं शक्ति का समुचित उपयोग न कर पाना और किसी व्यक्ति के दान, लाभ, भोग, उपभोग व शक्ति के उपयोग में बाधक बनना, यह अन्तराय कर्म का कारण है। वीर्य याने शक्ति, सामर्थ्य या बल। जो कर्म आत्मा की शक्ति को, सामर्थ्य को बढने नहीं देता, आत्मा की अनंत शक्ति को यह कर्म दबा देता है। इस कर्म के उदय से व्यक्ति अशांत संतप्त जीवन जीता है। धर्मध्यान इत्यादि में विघ्न डालना यह वीर्य अंतराय है। १९२ तत्त्वार्थसूत्र१९३ जैनतत्त्वादर्श१९४ और सर्वार्थसिद्धि१९५ में भी यही कहा है। डिप्रेशन का मूल कारण भी वीर्य अंतराय कर्म है। ऐसी स्थिति में कोई बात, कोई वस्तु या कोई व्यक्ति उसे सुख नहीं दे सकता।