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उवर्तना
उद्ववर्तना को उत्कर्षण भी कहते हैं । बद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग - रस का निश्चय बंधन के समय विद्यमान कषाय की तीव्रता मंदता के अनुसार होता है। उसके बाद की स्थिति विशेष - अध्यवसाय विशेष के कारण उस स्थिति में वृद्धि हो जाना ही उद्ववर्तना या उत्कर्षण कहलाता है। धवला में कहा गया है- 'कर्म प्रदेशों की स्थिति (व अनुभाग ) को बढाना उत्कर्षण कहलाता है । २१० स्थिति और अनुभाग की वृद्धि को उत्कर्षण कहते हैं । उद्ववर्तना के द्वारा कर्म स्थिति का दीर्घीकरण और रस का तीव्रीकरण होता है । २११ जैन कर्म सिद्धांत के अनुसार आत्मा कर्मबंध करते समय पूर्वबद्ध कर्मों की काल मर्यादा और तीव्रता बढ़ा भी सकती है, यही कर्म परमाणुओं की काल मर्यादा और तीव्रता को बढाने की क्रिया उद्ववर्तना कही जाती है । २१२
अपवर्तना
अपवर्तना का दूसरा नाम अपकर्षण भी है। अपकर्षण का अर्थ है घटना । बद्ध कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसाय विशेष से कम कर देने का नाम अपवर्तना है । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के कारण स्वतः अथवा तपश्चरण के द्वारा साधक पूर्वोपार्जित कर्मों की स्थिति व अनुभाग घटाता हुआ आगे बढता है। इसी का नाम मोक्षमार्ग में अपकर्षण है। संसारी जीवों के प्रतिपल शुभ या अशुभ परिणामों के कारण पुण्य या पाप प्रकृतियों क अपकर्षण हुआ करता है।
स्थिति और अनुभाग की हानि अर्थात् जो पहले बंधी थी, उससे कम करना ' अपकर्षण' है । २१३ जैन दर्शन में कर्मवाद में भी यही बात कही है । २१४
सत्ता
'अस्तित्व को सत्ता कहते हैं । ' २१५ बद्ध कर्म परमाणु अपनी निर्जरा अर्थात् क्षय होने तक आत्मा से संबंद्ध रहते हैं, इसी अवस्था का नाम सत्ता है । इस अवस्था में कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए विद्यमान रहते हैं । २१६ धान्य संग्रह के समान जो पूर्व संचित कर्म हैं, उनके आत्मा में स्थित रहने को सत्ता कहते हैं । २९७ सत्ता को सत्व भी कहते हैं । २१८
कर्मों का बंध हो जाने के बाद उनका विपाक भविष्य में किसी भी समय में होता है । प्रत्येक कर्म अपने सत्ता काल के समाप्त होने पर ही फल ( विपाक) दे पाता है । जितने समय तक काल मर्यादा परिपक्व न होने के कारण कर्मों का आत्मा के साथ संबंध बना रहता है, उस अवस्था को सत्ता कहते हैं ।