SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 212 - मुक्त होने का पुरुषार्थ करे तो अवश्य ही सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो सकती है। गोत्र कर्म का निरूपण इस संसार में जातियाँ उच्च हैं, तो कुछ जातियाँ नीच हैं। यह उँच-नीच का भेद भी कर्मकृत है, मनुष्यकृत नहीं है। आत्मा को प्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित, सम्मान-सम्मान या निंद्य-अनिंद्य कुल में जन्म प्राप्त कराने वाला गोत्र कर्म है । १७३ कर्म प्रकृति १७४ में भी यही है। कहा गोत्र कर्म का स्वभाव अच्छे-बुरे घड़े के समान होने से इस कर्म की तुलना कुंभार से की गई है, जैसे कुंभार अनेक प्रकार के घड़ों का निर्माण करता है । १७५ गोत्र कर्म के कारण आत्मा श्लाघ्य - अश्लाघ्य बनती है । गोत्र कर्म का विस्तार गोत्र कर्म के दो भेद : १) उच्च गोत्र, २) नीच गोत्र १७६ तत्त्वार्थसूत्र १७७ में भी यही कहा है। जिस कर्म के उदय से आत्मा उच्च प्रशस्त एवं श्रेष्ठ कुल में जन्म लेती है, उसे 'उच्च गोत्र कर्म' कहते हैं। नीति, धर्म की उपेक्षा और उपहास करता है तथा जिनका भाव और व्यवहार भी दूषित व अप्रशस्त है, वह नीच कुल कहलाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में उच्चजातिकुलादि आठ बातें उच्च गोत्र कर्म के उपभेद तथा नीच जाति कुलादि आठ बातें नीच गोत्र के उपभेद माने गये हैं । १७८ गोत्र कर्म १६ प्रकृतियाँ १) जाति मद न करने से । २) कुल मद न करने से आत्मा उच्च गोत्र का बंध करती है । जैसे भगवान महावीर ने मरीचि के जन्म से कुलमद किया था। जिससे उनके नीच गोत्र कर्म का बंध हो गया। फलतः उन्हें अंतिम जन्म में देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षी में अवतरित होना पडा । भिक्षुक कुल में आना ही नीच गोत्र कर्म का फल था । ३) बलमद न करने से ४) रूपमद न करने से । ५) तपोमद न करने से । ६) लाभमद न करने से । ७) श्रुतमद यानि ज्ञान का मद न करने से । ८ ) ऐश्वर्यमद न करने से ।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy