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________________ 206 भाग में अगले जन्म की आयु बांध सकती है। यदि उस समय आयु न बँधे तो शेष रहे एक भाग को तीन हिस्सों में बाँटने पर उनमें से दो भाग बीत जाने के बाद जो शेष बचे, उस एक हिस्से में आयु बंधती है। इस प्रकार अंतिम अन्तर्मुहूर्त में आयुष्य अवश्य ही बँधती है। प्रत्येक आत्मा अपने जीवनकाल में प्रतिक्षण आयुकर्म भोगती है। और प्रतिक्षण आयु कर्म के परमाणु भोगने के पश्चात् पृथक् होते रहते हैं। जिस समय वर्तमान जीवन के पूर्वबद्ध आयुकर्म के समस्त परमाणु क्षीण होकर आत्मा से पृथक् हो जाते हैं, उस समय प्राणी को अपना वर्तमान शरीर छोडना पडता है। वर्तमान शरीर को छोडने से पूर्व, भावी शरीर के आयु कर्म का बंध हो जाता है। एक प्रश्न सभी के मस्तिष्क में उभरता है, जब आयुष्य कर्म की कालावधि बिल्कुल नियत है तो अकाल मरण और आकस्मिक मरण कैसे और क्यों होता है? इनका समाधान जैन कर्म विज्ञान वेत्ताओं ने दो प्रकार का आयुष्य समझाकर स्पष्ट किया है। आयुष्य दो प्रकार का है, अपवर्तनीय आयुष्य, और अनपर्वतनीय आयुष्य। अनपवर्तनीय आयुष्य वह है जो बीच में टूटती नहीं और अपनी पूरी स्थिति भोग कर ही समाप्त होती है, अर्थात् जितने काल के लिए बंधी है उतने काल तक भोगी जाये वह 'अनपवर्तनीय आयुष्य' है।१५२ इसमें आयुष्य कर्म का भोग स्वाभाविक एवं क्रमिक रूप से धीरे-धीरे होता है। देव, नारकी, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेवादि उत्तमपुरुष चरम शरीरी और असंख्यात वर्षजीवी अकर्मभूमि के मनुष्य और कर्मभूमि में पैदा होने वाले यौगलिक मानव और तिर्यंच ये सब अनपर्वतनीय आयुष्य वाले होते हैं। अपर्वतनीय आयुष्य वह है जो आयुष्य किसी शस्त्र आदि का निमित्त पाकर बाँधे गये नियत समय के पहले भोग ली जाती है। इसमें आयुष्य कर्म शीघ्रता से एक साथ भोग लिया जाता है। अर्थात् आयु का भोग क्रमिक न होकर आकस्मिक रूप से होता है उसे अपर्वतनीय आयुष्य कहा जाता है। इसे व्यावहारिक भाषा में अकाल मृत्यु अथवा आकस्मिक मरण भी कहते हैं। बाह्य कारणों का निमित्त पाकर बाँधा हुआ आयुष्य अन्तमुहूत में अथवा स्थितिपूर्ण होने से पहले शीघ्रता से एक साथ भोग लिया जाता है। अपवर्तनीय और अनपर्वतनीय आयुष्य को क्रमश: सोपक्रम और निरुपक्रम आयुष्य कहा जाता है। १५३ सोपक्रम आयुष्य कर्म बीच में भी कभी पूर्ण हो सकती है। अनपर्वतनीय या निरुपक्रम आयुष्य वाले मनुष्यों को आघात तो लगते हैं, परंतु आयुष्य कर्म नहीं टूटता। 'स्थानांगसूत्र' में आयुष्यपूर्ण किये बिना बीच में मृत्यु हो जाने के सात कारण बताये हैं१५४ अध्यव्यवसाय, निमित्त, आहार, वेदना, परागात, स्पर्श, श्वास निरोध इन सात कारणों से अपर्वतनीय आयु के हैं। जीव का आयु नियत समय के पूर्व पूर्ण हो जाता है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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